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उपदेश-प्रासाद भाग १
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तथा भगवान् के पास में जघन्य से भी भवनपति आदि चारों प्रकार के देव-निकायों की कोटि संख्या होती हैं, यह अठारहवाँ अतिशय हैं ।
तथा पुष्प आदि सामग्रीयों से सुंदर सर्वदा वसन्त आदि छ ऋतुओं के प्रादुर्भाव से अनुकूलता होती हैं, यह उन्नीसवाँ अतिशय हैं ।
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इस प्रकार सभी अतिशयों को मिलाने से चौतीस की संख्या होती हैं । जो कि यहाँ पर समवायांग के साथ थोड़ा अन्यथापन भी दीखायी देता है, उसे मतांतर ही जानें । मतांतर के बीजों को केवल सर्वज्ञ ही जानतें हैं ।
विश्वसेन राजा के कुल में तिलक समान और अचिरा की कुक्षि रूपी छीप में रहे हुए मोती के समान तथा अतिशयों से आश्रित की हुए उन सोलहवें श्रीशांतिनाथस्वामी को नमस्कार कर - उपहास के परिहार से तथा त्रिकरण की विशुद्धि से प्रणाम कर, अनेक ग्रन्थों के अनुसार से मैं प्रतिपादन करूँगा । तथा इस शास्त्र में संबंध वाच्यवाचक लक्षणवाला हैं । यहाँ पर प्रकरण-अर्थ वाच्य हैं और वाचक- प्रकरण हैं । अभिधेय - सद्-अनुयोग से आर्हत् धर्मोपदेश का निरूपण हैं । प्रयोजन - दो प्रकार से हैं, प्रकरण के कर्त्ता का और श्रोता का । वह भी दो प्रकार से हैं परम् और अपर । वहाँ पर कर्त्ता का परं प्रयोजन परम-पद रूपी संपत्ति की प्राप्ति है और अपर भव्यजनों को प्रबोध और अनुग्रह हैं । श्रोता का भी परं प्रयोजन स्वर्गअपवर्ग सौख्य की प्राप्ति है और अपर शास्त्र के तत्त्वों का अवबोध है । क्योंकि इस प्रकार का शास्त्र बुद्धिमंतों को प्रवर्त्तक होता हैं । यहाँ आद्य श्लोक में श्रीमर्जिन का अतिशय से आश्रित विशेषण कहा