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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ जीव-दया के रसिक हृदयवालें ऐसे साधुओं का अवस्थान और गमनागमन आदि करना कैसे योग्य हैं ? क्योंकि जीवों का विघात होने से । यहाँ पर कोई उत्तर देते हैं कि वें पुष्प सचित्त ही नहीं होते, देवों के द्वारा वैक्रिय से ही करने के कारण से । यह कहनाअयुक्त हैं, क्योंकि वहाँ पर विकुर्वित कीये गये पुष्प ही नहीं होतें, जल और स्थल पर उत्पन्न पुष्प ही होते हैं। और यह अनार्ष नही हैं, जैसे किबींटों को, दिव्य पुष्प से व्याप्त नीहारी को तथा पाँच वर्णवाले सुगंधि और जल-स्थल से उत्पन्न पुष्प-वास को चारों ओर बिखेरे जाते हैं। इस प्रकार सिद्धान्त के वचनों को सुनकर सहृदयवालें ऐसे अन्य उत्तर देतें है कि- जहाँ पर साधु बैठते हैं, उस प्रदेश में देव पुष्पों को नहीं बिखेरतें हैं । यह भी उत्तर-आभास हैं क्योंकि साधुओं के द्वारा काष्ठ के समान अवस्था का आलंबन लेकर उसी प्रदेश में ही नहीं रहना पड़ता तथा प्रयोजन के होने पर वहाँ गमनागमन आदि की भी संभावना के होने से । उस कारण से समस्त गीतार्थों से संमत यहाँ पर यह उत्तर दिया जाता है कि- जैसे एक योजन मात्र समवसरण की पृथ्वी में अपरिमित सुर - असुर आदि लोगों के संमर्दन में भी परस्पर कोई बाधा नहीं होती, वैसे ही जानु प्रमाण में डाले गये उन पुष्पों के समूहों के ऊपर भी मुनियों के समूह और विविध जनों के समूह के संचरण करने पर भी कोई बाधा नहीं होती तथा विपरीत ही अमृतरस से सींचन कीये जाते हुए के समान उन पुष्पों को अत्यंत समुल्लास ही होता है । अचिन्तनीय और निरुपम तीर्थंकर के प्रभाव से उत्पन्न प्रसाद से ही यह होता है, इस प्रकार यह सोलहवाँ अतिशय है। __तथा प्रभु के सिर के बालों की और उपलक्षण से दाढी और हाथ-पैरों के नखों की भी वृद्धि नहीं होती, यह सत्तरहवाँ अतिशय
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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