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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ मान कहा गया है । उससे यहाँ पर भी वह केवल बारह गुणा ही है। वह मान सात हाथ मानवाले श्रीमहावीर के शरीर से बारह गुणा किया हुआ इक्कीस धनुष होता है और शाल-वृक्ष भी ग्यारह धनुष प्रमाणवाला है, उससे दोनों को मिलाने से बत्तीस धनुष होतें हैं, यह प्रवचनसारोद्धार वृत्ति में हैं । इस प्रकार यह नौवाँ देव-कृत अतिशय तथा जहाँ-जहाँ भगवान् विहार करते है, वहाँ-वहाँ काँटें नीचे मुखवालें होतें हैं, इस प्रकार यह दसवाँ देव-कृत अतिशय है। तथा जहाँ भगवान् विहार करतें है, वहाँ वृक्ष प्रणाम करते हैं अर्थात् नम्र हो जातें हैं, यह ग्यारहवाँ देव-कृत अतिशय है। तथा जहाँ भगवान् लीला-पूर्वक विचरण करतें हैं, वहाँ दुंदुभि की ध्वनियाँ बजती है, यह बारहवाँ अतिशय है। तथा पवन-संवर्तकवात योजन पर्यंत क्षेत्र-शुद्धि के विधायकपने से सुगंधि-शीतल-मन्दपने से अनुकूल-सुखद होता है । जो समवायांग में कहा भी है कि- शीतल-सुख स्पर्शवालेसुरभि पवन के द्वारा योजन-परिमंडल में सर्वत्र चारों ओर से प्रमार्जन किया जाता है । इस प्रकार यह तेरहवाँ अतिशय है । __ तथा जहाँ जगद्-गुरु संचरण करते हैं, वहाँ चाष पक्षी, मोर आदि पक्षियाँ और शकुन पक्षियाँ प्रदक्षिणा को देते हैं, यह चौदहवाँ अतिशय है। तथा जहाँ अरिहंत स्थित होतें हैं, वहाँ धूल-प्रसर के शमन के लिए कर्पूर आदि से मिश्रित गंधोदक की वृष्टि होती है, यह पंद्रहवाँ अतिशय है । तथा जानु के ऊँचाई प्रमाण पाँच वर्णवाले चंपक आदि पुष्पों की वृष्टि होती है । यहाँ पर कोई कहते है कि- विकसित और सुंदर पुष्पों के समूह से भरे हुए योजन पर्यंत समवसरण की भूमि में
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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