SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ [गढ़] होतें हैं । उसमें से तीर्थंकर का प्रत्यासन्न प्रथम कीला नानाप्रकार के रत्नों से निष्पन्न हुआ वैमानिक सुरों से रचा जाता है । द्वितीय कनकमय मध्यवर्ती कीला ज्योतिष्क देवों से किया जाता है । और बाहर का रजतमय तीसरा कीला भुवनपति देवों के द्वारा किया जाता है । इस प्रकार यह सातवाँ देव-कृत अतिशय है। तथा चतुर्मुख-चारों दिशाओं में चार मूर्तियों का होना । वहाँ पर भगवान् स्वयं पूर्वाभिमुख बैठते है । शेष तीनों दिशाओं में तीर्थंकर के प्रभाव से ही देवों के द्वारा कीये हुए सिंहासन आदि से युक्त तीर्थंकर रूपवाले प्रतिबिंब होते है । शेष देव आदि को और हमको भी स्वयं प्रभु कह रहे है, इस प्रकार की प्रतिपत्ति के लिए, यह आठवाँ अतिशय है। तथा जहाँ पर प्रभु विराजमान होते हैं, वहाँ पर देवों के द्वारा जिनेश्वर के ऊपर अशोक-वृक्ष किया जाता है । उस वृक्ष का परिमाण कितना होता है ? ऋषभ आदि पार्श्वनाथ पर्यंत तेईस तीर्थंकर के भी निज-निज शरीर के मान से बारह गुणा होता है और महावीर स्वामी के समय में वह अशोक-वृक्ष बत्तीस धनुष ऊँचा था ! जो कि कहा है कि ऋषभस्वामी के समय में अशोक-वृक्ष का प्रमाण तीन गाऊ था और वर्द्धमानस्वामी के समय वह बत्तीस धनुष् प्रमाणवाला था तथा शेष जिनेश्वरों के शरीर से वह अशोक-वृक्ष बारह गुणा ऊँचा था । यहाँ पर कहते है कि-निश्चय ही श्रीवीर-समवसरण के प्रस्ताव में आवश्यक-चूर्णि में जो कहा गया है कि इन्द्र जिनेश्वर की ऊँचाई से बारह गुणा ऊँचा श्रेष्ठ अशोक-वृक्ष की विकुर्वना करता है, यह कैसे घटित होता है ? यहाँ कहते है कि- वहाँ केवल अशोकवृक्ष का ही मान कहा गया है किन्तु यहाँ पर शाल-वृक्ष सहित का
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy