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उपदेश-प्रासाद - भाग १ टिड्डा, तोते, चूहें नहीं होते, इस प्रकार से यह छट्ठा अतिशय है । और मारि- औत्पातिक तथा दुष्ट देवता आदि कृत सर्वगत मरण नही होता वह सातवाँ अतिशय है, और अति-वर्षा-निरंतर वृष्टि नहीं होती, यह आठवाँ अतिशय है । तथा अनावृष्टि-सर्वथा जल का अभाव नहीं होता, यह नौवाँ अतिशय है । और दुर्भिक्ष-अन्नादि का अभाव नहीं होता यह दसवाँ अतिशय है । तथा स्व-सेना और परसेना कृत विग्रह नहीं होता, यह ग्यारहवाँ अतिशय है ।
अब उन्नीस देव-कृत अतिशय कहे जाते हैं । वहाँ आकाश में धर्म-प्रकाशक और स्फुरायमान किरणों का समूहवाला धर्मचक्र होता है, इस प्रकार यह प्रथम देव-कृत अतिशय है । तथा आकाश में चामर- श्वेत बालों से बनें वींजन होते हैं, यह द्वितीय देव-कृत अतिशय है । तथा आकाश में निर्मल स्फटिक मणिमय पाद-पीठ से युक्त सिंहासन होता है, यह तीसरा अतिशय हैं । तथा आकाश में तीन छत्र होते हैं, यह चौथा अतिशय हैं । तथा आकाश में रत्नमय
और शेष ध्वजाओं की अपेक्षा से अति-महत्त्वपने से इन्द्रध्वज धर्मध्वज होता है, इस प्रकार यह पाँचवाँ देव-कृत अतिशय है । ये पाँचों भी जहाँ-जहाँ पर जगद् गुरु विचरण करते हैं, वहाँ-वहाँ आकाश में स्थित हुए चलतें हैं।
तथा मक्खन के समान स्पर्शवालें नव स्वर्ण-कमल कीये जातें हैं और भगवान् वहाँ दो स्वर्ण-कमलों में अपने दोनों पादकमलों को रखकर विचरण करते है तथा अन्य सात स्वर्ण-कमल पीछे स्थित होते है और उनमें से जो-जो कमल पीछे होता है, वहवह कमल पाद को रखते हुए ऐसे भगवान् के आगे होता है, इस प्रकार यह छट्टा अतिशय है।
तथा समवसरण में मणि-स्वर्ण-चाँदी से रचित तीन कीलें