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उपदेश-प्रासाद - भाग १ प्रशंसनीय नहीं है । द्वितीय स्त्री ने विचार किया कि- सरो अर्थात् जलाशय नहीं है, यह पानी कहाँ से ले आये ? तीसरी स्त्री ने मन में सोचा कि- सरो अर्थात् शर-बाण नही है । उसके बिना यह किससे मृग को पकड़ेगा । इस प्रकार एक वाक्य से वे तीनों स्त्रियाँ निराकुल चित्तवाली हुई । वैसे ही यहाँ पर भी जिनेन्द्रों का वाक्य निरुपम और वचनों से गोचर-अतीत ही होता है । क्योंकि- सात नय और सात सो भांगोंवाली सप्त भंगी तथा दिव्य संगीतमय से युक्त भगवान् की जिस वाणी को सुननेवालें भव्य-प्राणि श्रुत-पारगामी बन जातें हैं। इस प्रकार यह द्वितीय अतिशय है।
तथा जिनेश्वरों के मस्तक के पीछे बिना सहारे से रहा हुआ बारह सूर्य-बिंबों की कान्ति से युक्त और जनों को मनोहर, भामंडल-अर्थात् प्रभा-समूह का उद्योत प्रसारित करनेवाला । जैसे कि- उनके अति-दुर्लभ रूप को देखनेवालों को विघ्न न हो, उससे तेज को पिंडित कर मस्तक के पीछे भाग में भामंडल की रचना करतें हैं । इस प्रकार वर्धमान-देशना में है । यह तीसरा अतिशय है ।
तथा करुणा के एक निधि परमात्मा जहाँ-जहाँ पर विहार करते हैं, वहाँ-वहाँ सवा सो योजन के अंदर, इसे इस प्रकार से समझे, जैसे कि- चारों दिशाओं में प्रत्येक दिशा में पच्चीस योजन के बीच तथा ऊर्ध्व-अधोभाग में प्रत्येक में साढे बारह योजन, इस प्रकार सवा सो योजन के अंदर पूर्व में उत्पन्न हुए अनिकाचित रोग, ज्वर आदि उपशांत हो जाते है और नूतन रोग आदि उत्पन्न नही होतें, इस प्रकार यह चौथा अतिशय हैं।
. तथा पूर्व-भव के बाँधे हुए और जाति-संबंधी वैर अर्थात् जीवों में परस्पर विरोध नहीं होता है, इस प्रकार से यह पाँचवाँ अतिशय है । तथा ईतियाँ अर्थात् धान्य आदि का विनाश करनेवालें