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उपदेश-प्रासाद - भाग १ योजन मात्र क्षेत्रवाले समवसरण की भूमि में बहुत-सारे और कोटिकोटि प्रमाण में भी जगत् के जन, देव, मनुष्य और तिर्यंच समा जाते हैं और परस्पर बाधा रहित सुख-पूर्वक बैठतें हैं, इस प्रकार कर्मक्षय से उत्पन्न यह प्रथम अतिशय है । तथा भगवान् के द्वारा कही जाती हुई और पैंतीस गुणों से युक्त अर्धमागधी भाषा नर-तिर्यंच
और देवों प्रत्येक को ही निज-निज भाषा से धर्मावबोध करनेवाली होती है तथा योजन तक व्याप्त होनेवाली और एक स्वरूपवाली भी भगवान् की वाणी मेघ से मुक्त पानी के समान उसके आश्रय के अनुरूपपने से परिणमन करती है । जैसे कि- देव दैविक भाषा में, मनुष्य मनुष्य-संबंधी भाषा में, भिल्ल शाबरी भाषा में तथा तिर्यंच अपनी तैरश्ची भाषा में, इस प्रकार भगवान् की वाणी को समझते हैं । भुवन में अद्भुत ऐसे इस प्रकार के अतिशय के बिना एक ही साथ में अनेक प्राणियों पर उपकार नहीं किया जा सकता । इस विषय में किसी भिल्ल का उदाहरण कहा जाता है कि- सरोवर, बाण और स्वर के अर्थ से, सरो नत्थि अर्थात् सरोवर, बाण और स्वर नहीं है इस प्रकार के वाक्य से जैसे भिल्ल ने एक ही साथ में तीनों प्रियाओं को प्रतिबोधित किया था । जैसे कि
कोई भिल्ल ज्येष्ठ मास में तीन स्त्रियों के साथ जाता हुआ एक स्त्री के द्वारा प्रार्थना किया गया कि- हे स्वामी ! तुम सुस्वर से गान करो जिसे मैं सुनूँगी । वह भिल्ल अन्य स्त्री के द्वारा याचना किया गया- तुम जलाशय से कमल-परिमल के साथ शीतल जल लाकर मुझे दो और मेरी प्यास का विच्छेद करो! अपर स्त्री ने कहा कि- मुझे मृग-मांस देकर मेरी क्षुधा को दूर करो । उन स्त्रियों के वाक्यों को सुनकर उस भिल्ल ने सरो नत्थि इस प्रकार के एक उत्तर से उनका निराकरण किया था । प्रथम स्त्री ने जाना कि- इसका स्वर कंठ