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उपदेश-प्रासाद - भाग १ अथवा शब्द से मुमुक्षुओं के द्वारा मोक्ष का हेतु-भूत अनुष्ठान भी करना चाहिए, इस प्रकार का अर्थ योग्य है । तथा हे सौम्य ! तुम इस प्रकार से मान रहे हो कि- क्या दीपक के समान ही इस जीव का निर्वाण होता हैं ? जो कि कोई बौद्ध विशेष इस प्रकार से कहते हैं कि
जैसे कि- विराम को प्राप्त हुआ दीपक न ही पृथ्वी में जाता है और न ही अंतरीक्ष में, न ही किसी दिशा में और न ही किसी विदिशा में, किन्तु तैल के क्षय से केवल शान्ति को प्राप्त करता हैं । वैसे ही निर्वृति को प्राप्त हुआ जीव न ही पृथ्वी में जाता है और न ही अंतरीक्ष में, न ही किसी दिशा में और न ही किसी विदिशा में, किन्तु क्लेश के क्षय से केवल शान्ति को प्राप्त करता हैं।
तथा जैन-आगम में क्या हैं ?
केवल सच्चिद् दर्शन रूपवालें, सर्व पीड़ा, दुःख से परिमुक्त हुए तथा क्षीण हुए आन्तर शत्रु गणवालें ऐसे मुक्ति में गये हुए जीव आनंदित होते हैं।
अब इसका यह प्रतिविधान है कि- प्रदीप के अग्नि का सर्वथा ही विनाश नहीं होता हैं क्योंकि दूध के समान ही परिणामवंत होने के कारण से अथवा परिणामांतर को प्राप्त हुए चूर्ण कीये हुए घडे के समान सर्वथा नाश नहीं होता हैं । यदि सर्वथा नाश नहीं होता है तो बुझ जाने के बाद यह अग्नि साक्षात् क्यों दिखायी नहीं देती हैं ? तो उत्तर कहते है कि- दीपक के बुझ जाने के अनंतर ही अंधकार का पुद्गल रूप विकार प्राप्त किया जाता हैं और जो प्राप्त नहीं किया जाता है वह अत्यंत सूक्ष्म परिणाम को प्राप्त करने के कारण से है जैसे कि काले मेघ के विकार के समान । निश्चय से पुद्गल की परिणति विचित्र रूपवाली है।
जैसे कि-पत्र के रूप में किया गया स्वर्ण चक्षु से ग्राह्य होकर