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________________ २६५ उपदेश-प्रासाद - भाग १ और शुद्धि के लिए अग्नि में डाला गया, भस्म में मिला हुआ वह स्पर्शन इन्द्रिय के ग्राह्यता को प्राप्त करता है और सूक्ष्म रीति से चूर्ण किया गया तथा धूल से संपर्क से युक्त हुआ वह निकृष्ट और मूल्य रहित होता है । इत्यादि अनेक पुद्गलों में विचित्रपने को स्व-बुद्धि से विचार करना चाहिए । तथा दीपक के पुद्गल चक्षु से ग्राह्य होकर पश्चात् बुझ जाने पर ये ही अंधकार रूप से हुए घ्राणेन्द्रिय के ग्राह्यता को प्राप्त करते हैं । जैसे अन्य रूप को प्राप्त हुआ दीपक बुझ गया है (निर्वाण हुआ है) इस प्रकार से कहा जाता है, वैसे ही जीव भी कर्मो से विरहित हुआ केवल अमूर्त संपूर्ण जीव स्वरूप लाभ के लक्षणवाले अबाध परिणामांतर को प्राप्त हुआ निर्वाण-निर्वृति(मोक्ष) को प्राप्त हुआ, इस प्रकार से कहा जाता है । शब्द आदि विषयों के उपभोग के अभाव से, देह, इन्द्रिय के अभाव से यह जीव निःसीम सुखवाला होता है । यहाँ पर कहा जाता है कि- मुक्त हुए जीव को परं-प्रकृष्ट, अकृत्रीम-स्वभाविक सौख्य होता है, इस प्रकार से यह प्रतिज्ञा-वचन हैं । ज्ञान का प्रकर्ष होने पर जन्म, वृद्धावस्था, व्याधि, मरण, अरति, चिन्ता, उत्सुकता आदि संपूर्ण बाधा के रहितत्व के कारण से, यह हेतु हैं । तथा अविप्रकृष्ट मुनि के समान, जैसे कि- जो कुछ-भी इस संसार में माला, चंदन, स्त्री के संभोग आदि से उत्पन्न हुआ और जो चक्रवर्ती आदि पुण्य-फल हैं वह निश्चय से दुःख ही हैं, विनाशी होने से और कर्मोदय से उत्पन्न होने के कारण से । जैसे कि- पामा रोग में खुजलने के समान और अपथ्य आहार आदि के समान है । और जैसे कि कहा गया है कि नग्न हुए प्रेत से आविष्ट हुए के समान झंकार शब्द करती हुई उस स्त्री का आलिंगन कर गाढ से आयासित हुआ सर्वांग से अपने को सुखी मानता वह निश्चय से क्रीड़ा करता हैं । सकल काम-गवी
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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