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उपदेश-प्रासाद
भाग १
२६३
पांडित्य, स्वरूप, चातुर्य और श्रेष्ठ वर्णनीय का अवलोकन करता हूँ । दोनों प्रकारों से भी मेरा वहाँ पर गमन करना न्याय से युक्त हैं । एक ज्ञाति समूह भेद के अभाव से योग्य हैं और द्वितीय पुनः किसी युक्ति से यदि मैं उसे घुणाक्षर के न्याय से जीतता हूँ तो सभी के मध्य में मेरी श्रेष्ठता हो, इस प्रकार से विचारकर वह प्रभु के समीप में आया ।
तब प्रभु ने कहा कि - हे आयुष्यमान् प्रभास ! तुम इस प्रकार से मान रहे हो कि निर्वाण है अथवा नहीं ? विरुद्ध वेद पदों के अर्थ के कारण से तुझे यह संशय हुआ है और वें यें वेद पद हैं- जो यह सर्व अग्निहोत्र है वह यावज्जीव हैं, तथा वह गुफा दुरवगाहनीय है । तथा - पर और अपर दो ब्रह्म हैं और वहाँ पर पर-ब्रह्म सत्य और अपर ब्रह्म ज्ञान अनंत हैं ।
तुम्हारें मन में इन पदों का यह अर्थ हैं कि- जो अग्निहोत्र हैं वह यावज्जीव ही करना चाहिए और अग्निहोत्र की क्रिया भूत-वध के हेतु होने से पाप व्यापार रूपवाली हैं और वह स्वर्ग के फलवाली ही होती है न कि मोक्ष फलवाली । यावज्जीव इस प्रकार के कहने से काल का अंतर नहीं है । जहाँ पर अपवर्ग (मोक्ष) के हेतु हुई क्रिया के अंदर आरंभ हो, उससे साधन के अभाव से मोक्ष का अभाव हुआ है । तथा गुफा - मुक्ति रूपिनी है और वह संसार के अभिनन्दियों को दुरवगाहनीय है अर्थात् दुष्प्रवेशनीय हैं। तथा पर-ब्रह्म सत्य और मोक्ष है और अनंत-ब्रह्म-ज्ञान हैं । प्रथम वाक्य - नास्तित्व (नहीं है, इसका ) का सूचक है और दूसरा वाक्य-अस्तित्व ( है का ) का सूचक जानें । तुझे इस प्रकार से संशय है कि- इनके मध्य में से कौन-सा प्रमाण वाक्य है ?
हे प्रभास ! इन पदों का यही अर्थ करना चाहिए कि- जो यह अग्निहोत्र हैं, उसे यावज्जीव सर्व-काल ही करना चाहिए और