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उपदेश-प्रासाद भाग १
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कर्म-योग हो, क्योंकि अकर्मकत्व के अविशेषपने से । तब मुक्त अमुक्त हो और यह इष्ट नहीं है, उस कारण से प्रवाह से संयोग अनादिक हैं । फिर अनादि संयोग में जीव का कर्म के साथ में कैसे विरह हो ? तो कहा जाता है कि- जो कि स्वर्ण और पाषाणों का संयोग अनादिक है, फिर भी उस प्रकार की सामग्री के सद्-भाव में धमन आदि से शल्य का वियोग देखा गया है, और इस प्रकार से ही जीव का भी ध्यान - अग्नि के द्वारा अनादि कर्म के साथ में वियोग सिद्ध होता है ।
तथा हे आयुष्यमन् ! कर्म के अभाव में धर्म-अधर्म, दानअदान, शील-अशील, तप-अतप आदियों का सुख - दुःख, स्वर्गनरक आदि फल सर्व ही व्यर्थ हो । उस कारण से स्व-पक्ष को छोड़कर तुम कर्म सद्भाव का स्वीकार करो । जगत् आदि सभी वस्तुओं का कर्त्ता ईश्वर ही है, उससे वंध्या के पुत्र की लीला के समान अदृष्ट कर्म की कल्पना से क्या प्रयोजन है ? जो तुम्हारे द्वारा स्वीकृत किया गया है कि वह मूर्त्त हो तो अमूर्त्त कर्त्ता जगत् आदि का सर्जन करता है, वह अयोग्य है । यदि वह मूर्त्त अथवा कुम्हार के समान क्यों दिखायी नहीं देता है ? यदि अमूर्त जगत् का सर्जन करता है तो शरीर आदि के अभाव से उसे जगत् सृष्टि में सामर्थ्य कैसे हो ? इसलिए शुभ-अशुभ कर्मों का कर्त्ता जीव ही है और भोक्ता भी जीव ही हैं। इसलिए ही आगम में कहा गया है कि - हे भगवन् ! जीव से आत्माकृत दुःख हैं, पर - कृत दुःख हैं अथवा उन दोनों से कृत दुःख हैं ? हे गौतम! आत्मा - कृत है न कि पर-कृत, न ही उन दोनों से कृत हैं। इसलिए आत्मा कीये हुए को स्वयं ही भोगता है । तथा हे अग्निभूति ! मैं ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों को प्रत्यक्ष से देख रहा हूँ । उससे तुम सत्त्व का स्वीकार करो । तुम्हारे संशय और विज्ञान के समान मुझे