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उपदेश-प्रासाद - भाग १ जीव, कर्म आदि कोई भी वस्तु अदृश्य नहीं हैं । तथा वेद में-पुण्य कर्म से पुण्य और पाप कर्म से पाप इत्यादि हैं। उस कारण से आगम से भी सिद्ध कर्म का तुम स्वीकार करो ।
इस प्रकार से भगवान् से प्रतिबोधित हुए उसने स्व-क्रोध को छोड़कर सोचा कि- अहो ! महा-भाग्य है, जो मुझे विश्व से पूज्य और निबिड़ जड़ता के एक हरण करने में सूर्य के समान अनंत गुणों से युक्त गुरु मिले हैं । इस प्रकार से आनंद सहित उसने छियालिसवें वर्ष में पाँच सो छात्रों के साथ में दीक्षा ली । दश वर्ष पर्यंत छद्मस्थ पर्याय का परिपालन कर केवलज्ञान प्राप्त किया । सोलह वर्षों तक भवस्थ केवलज्ञान को भोग कर उन्होंने अभवस्थ केवलज्ञान पद.को अलंकृत किया । यहाँ पर बहुत युक्तिवाले व्याख्यान को श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत महाभाष्य बृहद्वृत्ति से जानें ।
जिनेन्द्र के वाक्य से संशय रहित हुए द्वितीय भट्टारक श्रीअग्निभूति ने संयम को ग्रहण कर और त्रस आदि जीवों में दयामय आगम की प्ररूपणा कर निर्वाण नगर को प्राप्त किया।
इस प्रकार से संवत्सर-दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद की वृत्ति में चतुर्थ स्तंभ में छप्पनवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।