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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ २५६ वहाँ पर स्वर्ग की इच्छावाला अग्निहोत्र यज्ञ को करें, इत्यादि विधिवाद प्रधान हैं । अर्थवाद तो स्तुति-अर्थवाद अथवा निन्दाअर्थवाद से हैं । वहाँ पर-पुरुष ही इत्यादि स्तुति-अर्थवाद-पर हैं और पशु वध का हेतु होने से यज्ञ को न करे, इसप्रकार से यह निन्दाअर्थवाद है । बारह मास का संवत्सर होता हैं, अग्नि उष्ण होता हैं, अग्नि हिम का औषध है, इत्यादि अनुवाद प्रधान हैं क्योंकि लोक में प्रसिद्ध अर्थका ही इनमें अनुवाद होने के कारण से । उससे पूर्व में कहे हुए स्तुतिपरों को जात्यादि मद के त्याग के लिए और अद्वैतवाद प्रतिपादक के रूप में देखों । तथा हे सौम्य ! यहाँ पर आत्मत्व से अविशिष्ट आत्माओं की जो यह देव, असुर, मनुष्य, तिर्यंच आदि रूप अथवा राजा, रंक आदि रूप जो वैचित्र्य हैं, उसे तुम निर्हेतुक मत देखो और सदा ही भाव-अभाव के दोष प्रसंग को प्राप्त मत करो, क्योंकि सत्त्व अथवा असत्त्व नित्य हैं, हेतु रहित होने से और अन्य की अपेक्षा नहीं होने से । और जो ही इसके वैचित्र्य का हेतु है, वही कर्म हैं । तथा पौराणिक भी कर्म की सिद्धि को स्वीकार करतें हैं और वें जिस प्रकार से कहते हैं जैसे-जैसे निधान में रहे हुए के समान पूर्वकृत कर्म का फल अवस्थित होता है, वैसे-वैसे प्रदीप हाथ में ली हुई के समान उसका प्रतिपादन करने में उद्यत मति प्रवर्तन करती हैं। हे पांडव-ज्येष्ठ (हे युधिष्ठिर) ! जो मानव यहाँ पर पूर्वकृत कर्म का स्मरण नहीं करते हैं, वह यह दैव है, इस प्रकार से कहा जाता हैं। ___ इसलिए मूर्त कर्म को स्वीकार करना चाहिए और कर्म के अमूर्तत्त्व में कर्म के पास से आत्माओं का अनुग्रह और उपघात न हो, जैसे कि आकाश आदि के समान । इस कर्म के साथ जीव का संयोग अनादिक जानें । यदि सादि हो तो मुक्त आत्माओं को भी
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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