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उपदेश-प्रासाद - भाग १
तब सर्वदर्शी के द्वारा नाम और गोत्र से भाषित किया गया वह सोचने लगा कि- मैं जगत् में प्रसिद्ध हूँ, मुझे कौन नहीं जानता? यदि मेरे हृदय में रहे हुए संशय को जानेगा और दूर करेगा, तब मुझे विस्मय होगा । इस प्रकार से उसके विचार करते हुए भगवान् ने कहा कि-हे अग्निभूति गौतम ! तुम यह मान रहे हो कि क्या कर्म है अथवा नहीं ? निश्चय ही तेरा संशय अनुचित हैं । तुम वेद पदों के अर्थ को नहीं जानते हो, उससे तुम संशय कर रहे हो । उनका यह अर्थ है, और वें वेद के पद हैं- पुरुष ही यह सर्व हैं (ग्निं) जो हुआ है और जो होनेवाला है तथा अमृतत्व का स्वामी है, जो अन्न से अतिरोहन करता है, जो चलता और जो नहीं चलता है, जो दूर पर है और जो समीप में हैं, जो इस सर्व के अंदर है और जो इस सर्व के बाहर से जो हैं इत्यादि।
तेरे पक्ष में उनका यह अर्थ हैं- पुरुष आत्मा ही है, ग्निं शब्द निश्चय में है और वह कर्म-निषेध के अर्थ में हैं । यह सर्व-प्रत्यक्ष वर्तमान चेतनाचेतन हैं, जो हुआ हैं- जो अतीत हैं । और जो होनेवाला हैं- मुक्ति और संसार । उत शब्द समुच्चय बोधक हैं। अमृतत्व का- अमरण का, मोक्ष का । ईशान- प्रभु हैं । जो अन्न से अतिरोहन करता है- जो आहार से वृद्धि को प्राप्त करता हैं । जो चलता है, जैसे कि- पशु आदि ! जो नहीं चलता है, पर्वत आदि ! जो दूर पर हैं- मेरु आदि ! और जो समीप में हैं । वह भी आत्मा ही है, इस प्रकार से अर्थ हैं । जो अंतर्-मध्य में । इस चेतन-अचेतन के। सर्व का जो ही हैं- इस सर्व के बाहर से । वह सर्व पुरुष ही हैं, इस प्रकार से तुमने इससे कर्म-अभाव को स्थापित किया है और वह अयोग्य हैं, क्योंकि कोई वेद-वाक्य विधिवाद से युक्त हैं, कोई अर्थवाद प्रधान हैं और अपर अनुवाद पर हैं।