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उपदेश-प्रासाद - भाग १
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छप्पनवा व्याख्यान अब कर्त्ता नामक तृतीय स्थान कहा जाता हैं
जीव हेतुओं के द्वारा शुभाशुभ कर्मों को करता हैं, उससे आत्मा कर्तृक जाना जाय, जैसे कि- कारणों से कुंभकार के समान ।
यह भावार्थ हैं- जैसे कुम्हार मिट्टी, चक्र, वस्त्र आदि कारणों से घड़े को उत्पन्न करता हैं, वैसे ही कषाय आदि बंध के हेतुओं से जीव कर्म को बाँधता है । इस प्रकार से तत्त्व का ज्ञाता सम्यक्त्व स्थानता में अवगाहन करता है, इस प्रकार से यह तृतीय स्थान हैं।
अब भोक्तृ स्थान का निरूपण किया जाता है
स्वयं कीये हुए कर्मों को स्वयं ही उनका अनुभव करता है और कभी-भी अकृत कर्मों का भोग नहीं होता ।
इस विषय में अग्निभूति का उदाहरण है और वह इस प्रकार से है
मगधदेश में गोबरग्राम में वसुभूति ब्राह्मण रहता था और पृथ्वी नामकी उसकी पत्नी थी। उन दोनों को अग्निभूति पुत्र हुआ ।
एक दिन अग्निभूति सोमभट्ट के गृह में यज्ञ करने के लिए पाँच सो छात्रों के साथ में आया । तब प्रथम ही गये इन्द्रभूति को प्रभु के समीप में प्रव्रजित हुए सुनकर के उसने सोचा कि- तीनों भुवन में भी दुर्जय मेरे भाई इन्द्रभूति को किसी दुष्ट इन्द्रजालिक ने छल आदि से छलित किया हैं । जगत् के गुरु ऐसे मेरे भाई का चित्त भ्रमित हुआ हैं, उससे मैं जाकर उस दुष्ट को युक्ति से निग्रहित करूँगा । अहो ! सर्वज्ञ और सूर्य सदृश मेरे भाई को धिक्कार है, जो मुझे छोड़कर अकेला गया था । स्व-शक्ति को नहीं जानते हुए इसने क्या किया? इसने सिंह का आलिंगन किया है । अब मेरा वहाँ पर शीघ्र जाना ही योग्य हैं । इत्यादि वचन से गर्जना कर वह प्रभु के समीप में आया ।