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________________ '२५६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ हुए के समान अकस्मात् ही शोक सहित चित्तवाले हुए इस प्रकार से सोचने लगें कि- अहो ! कृपासमुद्र ने यह कौन-सी चेष्टा की है जो मुझे इस समय दूर भेजा है ? क्या मुझसे मोक्ष-मार्ग संकीर्ण हुआ होता ? हे त्रिभुवन में एक सूर्य सदृश । अब कौन मुझे प्रश्नों का उत्तर देगा ? इत्यादि विचारकर पुनः पुनः महावीर शब्द का संस्मरण करते हुए सूखे हुए कंठ-तालु से युक्त उन गणधर के मुख में उन अक्षरों के मध्य में से 'वी' इस प्रकार का वर्ण रहा । तब द्वादशांगी आगम को जाननेवालें होने से एक ही शब्द से सर्व शास्त्रार्थ संदर्भ के शक्तिमान् गणधर को 'वी' इस प्रकार से वर्ण-पूर्वक सुशब्द स्मृति पथ में आएँ-वीतराग, विबुद्ध, विषयत्यागी, विज्ञानी, विकारों को जीतनेवालें, विद्वेषी, विशिष्ट श्रेष्ठ, विश्वपति, विगत-मोही, इत्यादि शब्दों के मध्य में वीतराग शब्द के अर्थकी परिभावना करते हुए मोह रहित हुए, उन्होंने पंचम ज्ञान को प्राप्त किया । देव गणों ने स्वर्ण कमल की रचना आदि विधि की । अनेक भव्यों को प्रतिबोधित कर और बारह वर्ष पर्यंत केवली पर्याय का परिपालन कर सादि-अपर्यवसित सौख्य को भोगा । विमल केवल ज्ञान रूपी गुण से उत्तम, जिनवर द्वारा कहे हुए आगम में उत्पन्न विनिश्चयवाले और प्रथम साधु गण के स्वामी ( गणधर) गौतम में मैं सुंदर स्तुति का विधान करता हूँ। इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद की वृत्ति में चतुर्थ स्तंभ में पचपनवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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