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________________ उपदेश-प्रासाद २५५ भाग १ भाव से वें विनाश को प्राप्त करतें हैं, न कि पुनः यह आत्मा सर्वथा ही विनष्ट होता है, जिससे कि एक यह आत्मा ही तीन स्वभाववाला हैं। वह कैसे ? तो कहते है कि- पूर्व के उपयोग के विगमन से विनश्वर स्वरूपवाला हैं, अपर विज्ञान के उपयोग के स्वभाव से उत्पाद स्वरूपवाला है और अनादि काल से प्रवृत्त हुए सामान्य विज्ञान मात्र संतति से पुनः यह आत्मा अविनष्ट ही रहता है । इस प्रकार से अन्य सर्व भी वस्तु को तीन स्वभाववाली जानें। प्रेत्य-संज्ञा नहीं हैं और अन्य वस्तु के उपयोग काल में वर्त्तमान वस्तु के उपयोग से पहले की विज्ञान की संज्ञा नहीं होती है । इस अर्थ से तुम जीव-सत्त्व का स्वीकार करो । -- 1 इस प्रकार से त्रिजगत् के स्वरूप को जाननेवालें भगवान् से समस्त ही पर प्रबोध के उपाय में कुशलपने से संशय रहित हुए, पचास वर्षीय और गृहीधर्म को छोड़नेवाले इन्द्रभूति ने भागवती दीक्षा ग्रहण की। भगवान् के द्वारा वें गणधर पद पर स्थापित कीये गये । स्वर्ण के समान वर्णवालें, सप्त हाथ ऊँचे देह के मानवाले, अनेक लब्धियों से युक्त, शुद्ध चारित्र के पर्याय से चतुर्थ ज्ञान को प्राप्त करनेवाले, क्षयोपशम दर्शन से युक्त, यावज्-जीव षष्ट-तप करनेवाले, विषय - कषाय आदि को जीतने के गुणवाले वें श्री इन्द्रभूति गणधर हुए थें, जिन्होंने तीस वर्ष पर्यंत सर्वज्ञ की सेवा की थी। एक दिन वीर ने स्व-निर्वाण के समय को समीप में जानकर प्रेम - छेदन के लिए देवशर्मा ब्राह्मण के प्रतिबोध के लिए गौतम को वहाँ पर भेजा । तब सोलह प्रहर पर्यंत देशना देकर जगदीश्वर ने अक्षय सौख्य को प्राप्त किया । श्रीगणधर उसे प्रतिबोधित कर जिन के समीप में आते हुए देव गण से सर्वज्ञ के मोक्ष को जानकर वज्राहत
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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