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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ २५४ होते है । अधम पुरुष काम की चिन्तावाले और अधमाधम परचिन्तावालें होतें हैं । जैसे कमलिनी के ऊपर नीर सर्वदा भिन्न रहता है वैसे ही सर्वदा यह आत्मा स्वभाव से देह में रहता हैं। जो सर्व शास्त्रों से संमत जीव-अभाव को कहते हैं, वे मिथ्यावादी ही है, इसलिए तुम असंख्य प्रदेशात्मक जीव का स्वीकार करो । तथा हे गौतम ! आत्मा के समान कोई पदार्थ नहीं है, वह योग्य नहीं है ! धर्म-अधर्म-आकाश पदार्थ उसके प्रदेश के प्रमाणवालें ही हैं । उनका स्थापन हरिभद्रसूरि कृत षड्दर्शन समुच्चय की बृहद्वृत्ति से जानें । तथा जैसे तेरे देह में आत्मा हैं, वैसे अन्य देह में भी हैं । सर्वत्र हर्ष-शोक, संताप, सुख-दुःख आदि विज्ञान उपयोग के दर्शन होने से । तथा आत्मा कुंथु होकर के हाथी होता है और इन्द्र होकर के तिर्यंच होता है । इसलिए अचिन्तनीय शक्तिमान् विभु, कर्ता, ज्ञाता और कर्म से भिन्न-अभिन्न स्वरूपमय से देखा जाय । तथा तुम विज्ञान, घन आदि वेद के वाक्य का यह अर्थ कर रहे हो कि-विज्ञान-घन रूप आत्मा इन पाँच भूतों से उत्पन्न होकर, तत्पश्चात् उन महाभूतों में ही विनष्ट हो जाता है, तब विज्ञान घन आत्मा नष्ट हो जाता हैं । इसलिए ही पर भव में आत्मा नहीं होती हैं, पूर्व में ही सर्व विनाशकपने से नष्ट हो जाने से । इस प्रकार से यह अयोग्य हैं । इस वेद पद का यह अर्थ योग्य है, उसे तुम सुनो ___ विज्ञान अर्थात् ज्ञान और दर्शन का उपयोग हैं, उससे घन अर्थात् निबिड यह जीव है । इन ज्ञेय-भाव से परिणत हुए भूतों से घट आदि से उत्पन्न होकर या घट आदि ज्ञानोपयोग से उत्पन्न होकर और वेंही उपयोग के लिए आलंबन लीये गये भूत है । अनु-पश्चात् कालक्रम से अन्य मनस्कत्व आदि से दूसरे अर्थ में उपयोग होने पर ज्ञेय
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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