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________________ २५३ उपदेश-प्रासाद - भाग १ प्रत्यय से ग्रहण करने योग्य आत्मा को छुपाते हुए तुझे मेरी माता वंध्या है इसके समान स्व-वाक्य व्याहति दोष आ रहा हैं। तथा तुम स्मृति, जिज्ञासा, करने की इच्छा, गमन करने की इच्छा, कहनेवाला इत्यादि ज्ञानविशेष उन गुणों के स्व-संवेदन प्रत्यक्षपने से जीव का स्वीकार करो । तथा देह आदि और इन्द्रियों का अधिष्ठाता और भोक्ता वह जीव ही हैं। जिसका भोक्ता नहीं है, उसका भोग्य भी नहीं है, जैसे कि गधे के सींग के समान । शरीर आदि भोग्य है उससे विद्यमान भोक्तृकवाला हुआ। पुनः हे सौम्य ! तेरे संशय के सद्भाव से जीव है ही, जहाँ-जहाँ संशय हैं, वहाँ-वहाँ वह हैं, जैसे कि ठूठ और पुरुष के समान । कोई मनुष्य दूर से ही वन में ढूँठ और पुरुष को देखकर लूंठ और पुरुष दोनों ही के दो धर्मों का अन्वेषण करता है कि- क्या यह दूंठ हैं अथवा पुरुष हैं ? और इस प्रकार का संशय आत्मा-शरीर दोनों के सत्त्व में ही उत्पन्न होता है, दोनों में से एक के भी अभाव में नहीं होता है । इस प्रकार के अनुमान से तुम जीवअस्तित्व का स्वीकार करो । तथा हे सौम्य ! सभी आगम परस्पर विरुद्धता से युक्त हैं उससे कौन-सा आगम प्रमाण है ? और कौन-सा अप्रमाण है ? इस प्रकार का संदेह योग्य नहीं है क्योंकि सभी आगम आत्मा-सत्त्व को स्थापित करतें ही हैं, जिसप्रकार से शाब्दिक कहतें है कि- जो व्युत्पत्तिमत् और सार्थक शुद्ध पद होता है, वह वस्तु होती ही है, जैसे किसूर्य, और व्युत्पत्ति से रहित जो शब्द है, वह वस्तु नहीं हैं, जैसे किडित्थडवित्थ आदि ! जैसे कि ध्यान-हीन मनुष्य परमानन्द से संपन्न, निर्विकारी, रोगरहित और निज देह में व्यवस्थित आत्मा को नहीं देखतें हैं । उत्तम पुरुष आत्मा की चिन्तावालें होतें हैं । मध्यमा मोह की चिन्तावाले
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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