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उपदेश-प्रासाद
भाग १
२५२
गृह के समूह के समान प्रत्यक्ष से दिखायी नहीं देता है, इसलिए खरगोश के सींग के समान प्रत्यक्ष प्रमाण से जो नहीं देखा गया हैं, वह नहीं हैं । तथा अनुमान प्रमाण भी प्रत्यक्ष के द्वारा प्रवर्त्तन करता हैं, जैसे कि - पूर्व में रसोई-घर आदि में धूम से अग्नि को प्रत्यक्ष से ग्रहण कर उसके उत्तर काल में - जहाँ पर धूम है वहाँ पर अग्नि हैं, इस प्रकार से जानता हैं । और न ही इस प्रकार से आत्मा के लिंगी के साथ में किसी लिंग की भी प्रत्यक्ष से सिद्धि होती हैं कि जिस चिह्न से जीव में प्रत्यय हो । तथा जीव आगम से ग्राह्य भी नहीं है क्योंकि सभी के आगम परस्पर विरोधि हैं, जैसे कि
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भद्र ! तुम गीदड के पैर को देखो, यह लोक इतना ही है जहाँ तक इन्द्रिय से गोचर हैं, इस प्रकार से अबहुश्रुत कहतें हैं ।
हे सुंदर नेत्रोंवाली ! तुम खाओ, पीओ ! हे श्रेष्ठ शरीरवाली ! जो अतीत हुआ है, वह तेरा नहीं है, हे स्त्री ! जो व्यतीत हुआ है वह नहीं लौटता है और यह शरीर समुदाय मात्र ही है ।
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इस प्रकार से नास्तिक कहतें हैं ।
तथा वेद में- सशरीरवाले को प्रिय-अप्रिय की अपहति नहीं है तथा अशरीरीपने से रहे हुए को प्रिय-अप्रिय स्पर्श नहीं करते हैं । तथा कपिल-मत में- अकर्त्ता, निर्गुणी, भोक्ता और चिद् रूपवाला पुरुष हैं । इत्यादि शास्त्र से भी विरुद्धत्व के कारण से आत्मा की सिद्धि नहीं हैं । तथा यहाँ त्रिभुवन में भी आत्मा के समान कोई पदार्थ नहीं हैं जो उपमा से उपमित की जा सकें । इस प्रकार से सर्व प्रमाणों से अतीत जीव नहीं है, ऐसा तुम मान रहे हो । वह अयोग्य हैं ।
हे आयुष्यमन् ! तेरे चित्त में रहे हुए जीव के संशय के समान सर्वत्र ही मैं - प्रत्यय से मैं अतीन्द्रिय भी जीव को देख रहा हूँ। अहं (मैं)