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उपदेश-प्रासाद - भाग १
२४८ एक दिन वन में सर्वज्ञ की पूजा कर और घर पर आते हुए कुमार को दोनों पैरों से पकड़कर और भूमि के ऊपर पटककर यक्ष ने कहा कि-रे! तुम अब भी स्व-आग्रह को क्यों नहीं छोड़ रहे हो? यह सुनकर विक्रम ने यक्ष से इस प्रकार से कहा कि- हे यक्ष ! तुम जीवहिंसा मत करो, क्योंकि
करोड़ो ग्रन्थों से जो कह गया है, मैं उसे अर्ध श्लोक में कहूँगा- परोपकार पुण्य के लिए हैं और पर-पीडन पाप के लिए हैं। पृथ्वी पर स्वर्ण, गाय और पृथ्वी आदि के दाता सुलभ हैं, किन्तु जो पुरुष प्राणियों को अभय प्रदाता हैं वह लोक में दुर्लभ हैं।
इत्यादि कुमार के साहस को देखकर यक्ष ने कहा कि- तुम मुझे प्रणाम करो, मैं उससे ही संतुष्ट होऊँगा । कुमार ने कहा कि- हे यक्ष ! प्रहास, विनय, प्रेम, प्रभु और भाव के भेद से नमस्कार पाँच प्रकार से होते हैं । वहाँ पर मत्सर से और अवहेलना से जो किसी को भी नमस्कार होता हैं, वह प्रहास हैं । पिता आदि को जो नमस्कार है, वह विनय है । जो मित्र आदि को नमस्कार हैं, वह प्रेम हैं । जो राजा आदि को नमस्कार किया जाता है, वह प्रभु हैं और गुरु आदि को जो नमस्कार किया जाता हैं वह भाव-नमस्कार है । इनके मध्य में तुम किस नमस्कार के योग्य हो ? यक्ष ने कहा कि- हे कुमार ! तुम मुझे अंतिम नमस्कार ही करो, क्योंकि मेरे द्वारा ही जगत्की सृष्टि, संहार, पालन और संसार से निस्तारण आदि किया जाता हैं । कुमार ने कहा कि- हे यक्ष ! जहाँ तुम ही भव-समुद्र में मग्न हो तो अन्यों को कैसे तारोगे ? क्योंकि
जैसे कि- लोह की शिला खुद को भी डुबाती हैं और विलग्न हुए पुरुष को भी डुबाती हैं, वैसे ही आरंभ से युक्त गुरु स्व-पर को डुबोता हैं।