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उपदेश-प्रासाद - भाग १
२४७ नरक में गया । तब आयु के क्षय से उसने स्वयंभूरमण में मत्स्यत्व को प्राप्त किया । वहाँ से सातवीं नरक में जाकर पुनः मत्स्य-भव में जाकर छट्ठी नरक में गया ।
इस प्रकार से एक-एक नरक में दो बार, तीन बार भ्रमण कर-कर के कुदेव कुमार होकर तिर्यंच, पृथ्वी, पानी, तेजस्, वायु आदि और अनंत काय आदि में महाआपदा को सहन करते हुए पद्म ने अनंत उत्सर्पिणीयों को व्यतीत की । अकाम निर्जरा से स्व-कर्मों को लघु करता हुआ कोई श्रेष्ठी-पुत्र होकर और तापस होकर के तेरा पुत्र हुआ हैं । अल्प मात्र में अवशिष्ट रहे हुए ऋषि-घात के पाप से यह रोगों से पराभूत हुआ हैं।
इस प्रकार से दुःश्रवणीय पूर्व भव को सुनकर और जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त कर कुमार ने अपने आपसे इस प्रकार से कहा कि
हे जीव ! मिथ्यात्व-मोह से मूढ हुए तुमने कहाँ-कहाँ पर भ्रमण नहीं किया हैं और छेदन-भेदन प्रमुख किस-किस दुःख को प्राप्त नहीं किया हैं ? फिर केवली भगवंत से कहा कि
हे भगवन् ! मेरे ऊपर प्रसन्न हो और भव रूपी कुएँ में से धर्म रूपी रस्सी से बाहर निकालो । मुनि ने छह भावनाओं से युक्त दर्शन का वर्णन किया । सम्यक्त्व मूलवाले श्रावक-धर्म का स्वीकार कर वह स्व-पुर में आया और निरोगी हुआ । एक दिन स्वयं ही उस यक्ष ने कहा कि- हे कुमार ! तुम मेरी शक्ति से सज्ज देहवाले, हुए हो, तुम मुझे सो भैंस दो।
कुमार ने हँसकर के कहा कि- केवली-प्रसाद से मेरे रोग गये हैं। क्या तुम याचना करते हुए लज्जित नहीं हो रहे हो ? मैं कुंथु को भी नहीं मारता । यह सुनकर यक्ष ने क्रोध सहित कहा कि- रे ! तुम मेरे द्वारा कीये हुए को देखना, इस प्रकार से कहकर वह अदृष्ट हुआ ।