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उपदेश-प्रासाद - भाग १
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चव्वनवा व्याख्यान अब छह भावनाओं का निरूपण किया जाता हैं
दोनों प्रकार के धर्म की भी सम्यक्त्व की ये छह भावनाएँ हैं, जैसे कि- मूल, द्वार, प्रतिष्ठान, आधार, भाजन और निधि ।
___ सम्यक्त्व को इस रूप से जाने, सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए धर्म रूपी वृक्ष का मूल हैं और मुक्ति रूपी नगर का द्वार हैं, जिन द्वारा कहे हुए धर्म रूपी वाहन का सुनिश्चल पीठ हैं । विनय आदि का आधार हैं, धर्म रूपी अमृत का भाजन(पात्र) हैं और ज्ञान आदि रत्नों की निधि हैं।
गमनिका-सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए यति और श्रावक रूप धर्म रूपी वृक्ष का सम्यक्त्व मूल हैं और उस मूल के निश्चल होने पर स्वर्ग
और मोक्ष आदि फल प्राप्त कीये जातें हैं, इस प्रकार यह प्रथम भावना हैं । मोक्ष रूपी नगर का द्वार हैं, क्योंकि सम्यग्-दर्शन रूपी द्वार को छोड़कर न ही प्रवेश और अंदर गमन होता हैं, दूसरे नगर में नगरद्वार के बिना प्रवेश नहीं होता हैं, इस प्रकार से यह द्वितीय भावना हैं। तथा जिन द्वारा कहे हुए धर्म रूपी वाहन का सम्यग्-दर्शन सुनिश्चल प्रतिष्ठान अर्थात् पीठ हैं और उस पीठ के निश्चल होने पर धर्म चिर काल तक रहता है, इस प्रकार से यह तृतीय भावना हैं । तथा विनय आदि गुणों का दर्शन आधार या अवस्थान हैं, इसके बिना विनय आदि गुणों का अस्थिरत्व होता है, यह चतुर्थ भावना है । तथा धर्म रूपी अमृत का भाजन दर्शन हैं । पात्र के बिना धर्म रूपी अमृत अन्य स्थान में स्थित नहीं होता, इस प्रकार से यह पाँचवी भावना हैं । तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि रत्नों का सम्यक्त्व निधान हैं, जैसे निधान के बिना रत्नों का स्थान नहीं होता, वैसे ही सम्यक्त्व के बिना रत्नत्रय का भी आवास स्थान नहीं होता, यह छट्ठी भावना हैं । इस