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उपदेश-प्रासाद - भाग १ कीये और वेंकंठ में हारपने को, मस्तक पर मुकुटपने को, दोनों कानों में कुंडलपने को, हाथ और चरणों में कड़ापने को प्राप्त हुए । आरक्षकों ने राजा से उस आश्चर्य का ज्ञापन किया । राजा वहाँ आकर के श्रेष्ठी का सत्कार कर और स्व-हस्ती के ऊपर बैठाकर महोत्सव सहित स्व-गृह में ले गया । उस वृत्तांत को जानकर मनोरमा ने कायोत्सर्ग को छोड़ा । राजा ने सुदर्शन के मुख से रानी के वृत्तांत को जानकर के श्रेष्ठी के वचन से अभया को अभय देकर और श्रेष्ठी को हाथी के स्कंध पर आरोपित कर स्व-गृह में भेजा । उस वृत्तांत को जानकर अभया स्वयं को लटकाकर मृत हुई और पंडिता पाटलीपुर में वेश्या के समीप में गयी।
अब भव से विरक्त हुआ सुदर्शन व्रत को ग्रहण कर विचरण करते हुए पाटलीपुर में गया । वहाँ पर पंडिता प्रतिलाभ के बहाने से स्व-गृह में ले जाकर के और द्वार को बंद कर कदर्थित कीये गये भी चलित नहीं हुए । सायंकाल में छोड़ने पर वें मुनि वहाँ से निकलकर और वन में जाकर स्मशान के अंदर प्रतिमा से स्थित हुए । वहाँ पर भी व्यंतरी हुई उस अभया रानी ने पूर्व के वैर से अनेक उपसर्ग कीये । तो भी उस मुनि का मन चलित नहीं हुआ । शुभ ध्यान से उस मुनि ने केवलज्ञान को प्राप्त कर देशना दी । तब अभया ने भी सम्यक्त्व को प्राप्त किया । इस प्रकार से चिर समय तक केवल-पर्याय का परिपालन कर मोक्ष में गये ।
सुदर्शन के समान जो मनुष्य बलाभियोग से भी स्व-धर्म में दृढता को भजतें हैं, सुदर्शनों से सुंदर वें क्षण में ही जगत् में संपत्तिपद को प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार से संवत्सर-दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद की वृत्ति में चतुर्थ स्तंभ में तेपनवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।