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उपदेश-प्रासाद - भाग १ करो, ममत्व को छोड़ो और सर्व प्राणियों पर मैत्री करो।
इत्यादि वचन से शांत हुए कोपवाले उसने पञ्च नमस्कार का स्मरण करते हुए पञ्चम कल्प के सौख्य को प्राप्त किया । मदनरेखा निज ज्येष्ठ कार्य को जानकर स्व-शील की रक्षा के लिए पुत्र आदि को छोड़कर गर्भ सहित रात्रि के समय में ही पलायन कर महा-अरण्य में आयी । वहाँ शेर, सिंह आदि के शब्दों से त्रस्त हुई महासती ने वृक्ष-तल पर पुत्र को जन्म दिया । रत्न कंबल से उस बालक को वेष्टित कर और स्व-पति के नाम से अंकित मुद्रिका उस बालक के हाथ में डालकर, वस्त्र, देह आदि को साफ करने के लिए सरोवर में प्रवेश करती हई वह जल-हाथी के द्वारा सूंढ से ग्रहण कर आकाश में फेंकी गयी।
तब नन्दीश्वर में जाते हुए विद्याधरेन्द्र ने उसे आकाश में ही ग्रहण की । रोती हुई मदनरेखा ने पुत्र प्रसव का वृत्तांत और उन्मार्ग में मुक्त पुत्र के बारे में कहा । उसे सुनकर विद्याधर ने विद्या के बल से उसके स्वरूप को कहा कि- हे भद्रे ! वक्र शिक्षित अश्व के द्वारा अपहरण कीये गये मिथिला के स्वामी पद्मरथ ने तुम्हारे पुत्र को ग्रहण कर स्व-पत्नी को पुत्रपने से दिया हैं । तुम विषाद को छोड़कर मुझे पतित्व से भजो । यह सुनकर उसने कहा कि- हे पूज्य ! पूर्व तुम मुझे नन्दीश्वर में यात्रा कराओ, पश्चात् मैं इच्छित के पूरण में प्रयत्न करूँगी। वह मदनरेखा को नन्दीश्वर में ले गया ।
नन्दीश्वर में जब मदनरेखा बावन तीर्थंकरों को नमस्कार कर और वहाँ पर आये हुए मणिचूड नामक चक्रवर्ती राजर्षि को प्रणाम कर स्थित हुई थी, उतने में ही अवधि से पूर्व भव के स्वरूप को जानकर और ब्रह्मकल्प से आकर युगबाहु देव पहले उसके पादकमल को प्रणाम कर तत्पश्चात् साधु को नमस्कार कर बैठा । उसे