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________________ २३६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ जला था, पुनः लोक में यह प्रवाद वृथा हैं कि वह हर के द्वारा जलाया गया था। मणिरथ ने मदनरेखा को आवर्जित करने के लिए शीघ्र से पुष्प, तांबूल और वस्त्र आदि भेजें । उसने भी-यह ज्येष्ठ का प्रसाद हैं इस प्रकार से मानकर उसे ग्रहण किया । एक बार दूती ने राजा के वाक्य से उससे राजा का इच्छित कहा । मदनरेखा ने उसे सुनकर दूती से कहा कि जगत् में प्रसिद्ध नारियों में शील ही महा-गुण हैं, जैसे जीव के चले जाने पर प्राणियों को सब वृथा हैं, वैसे ही शील के लुप्त हो जाने पर सब वृथा हैं। इसलिए मुझसे अयोग्य वाक्य का कथन राजा को युक्त नहीं हैं । दूती ने वैसे ही राजा से निवेदन किया । तो भी राग से लोलुप उसने सोचा कि- मैं बन्धु को मारकर मदनरेखा को ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। एक बार वसन्त की क्रीड़ा के लिए युगबाहु स्व-स्त्री के साथ में उद्यान में गया था । वहाँ प्रिया सहित स-विस्तार क्रीड़ा कर रात्रि में वहीं पर कदलीगृह में सो गया । अवसर को जानकर राजा ने तलवार सहित गुप्त-रीति से कदलीगृह में प्रवेश किया । हा ! काम के उदय में कुल-मर्यादा, यश, धर्म, लज्जा आदि को छोड़कर मणिरथ ने बंधु को तलवार से गले पर मारा ! वहाँ से राजा स्व-गृह में चला गया । मदनरेखा स्वामी के अवसान समय को जानकर और विलाप कर गद्-गद् सहित कहने लगी कि हे भाग्यशाली ! लेश-मात्र भी आप व्यर्थ में खेद को मत करो, सर्वत्र भी प्राणियों का पूर्व कृत कर्म अपराध कर रहा हैं, उस कारण से आप मन को समाधि में लीन करो, जिन का शरण ग्रहण
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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