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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ २३५ प्रधान हैं, सत्य है और प्रशंसनीय हैं इस प्रकार से कहकर दोनों देवों ने निज रूप को प्रकट किया । इन्द्र के द्वारा की गयी प्रशंसा के स्वरूप को कहकर और उसके सर्व रोगों का हरण कर उसके गृह को रत्नों से भर दिया । उससे यह सर्वत्र आरोग्य - ब्राह्मण के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इस प्रकार से गुरु निग्रह आकार ( आगार) को जानते हुए भी उसने धर्म में स्थैर्य को नहीं छोड़ा था । इस प्रकार से स्व-नियमों का परिपालन कर उसने स्वर्ग के सौख्य को प्राप्त किया । - इस प्रकार संवत्सर - दिन परिमित उपदेश - संग्रह नामक उपदेश - प्रासाद की वृत्ति में चतुर्थ स्तंभ में इक्यावनवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ । बावनवाँ व्याख्यान अब देवाभियोग की व्याख्या की जाती हैं कुलदेव आदि के वाक्य से जो मिथ्यात्व किया जाता है, वह सम्यक्त्व में रत हुए को देवाभियोग होता है । देव आदि उपसर्ग से कोई चुलनीपिता आदि के समान ग्रहण कये हुए धर्म में चपलता को प्राप्त करतें हैं, फिर भी उनको महान् दोष नहीं लगता, मिथ्या - दुष्कृत आदि से शीघ्र ही वापिस लौट जातें हैं । नमिराजर्षि के समान कोई उत्सर्ग पक्ष में स्थित हुए चलित नहीं होतें हैं, इस विषय में यह उदाहरण है - अवन्ति देश में सुदर्शनपुर में मणिरथ राजा था, उसका युगबाहु नामक अनुज युवराज था और उसकी प्रिया मदनरेखा थी । एक दिन राजा उसे किसी स्थान पर देखकर कामासंक्त हुआ । जो कि कामदेव रूप संपत्ति को देखकर स्व- आत्मा में ही
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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