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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ विचलित नहीं होतें । इस प्रकार से विचारकर रोग-ब्राह्मण ने कहा कि - हे वैद्यों ! मैं दूसरी औषधियों से भी चिकित्सा की इच्छा नहीं करता हूँ, तो पुनः सर्व धर्मवंतों को असेवनीय इन औषधियों से क्या प्रयोजन है ? जैसे कि - मद्य में, मांस में, शहद में और छांस से बाहर कीये हुए मक्खन में सूक्ष्म जन्तु राशियाँ उत्पन्न होती है और विलीन होती है। अग्नि के द्वारा सात गाँवों को भस्मसात् करने पर जो पाप होता है, मघु (शहद) बिन्दु के भक्षण से वही पाप होता हैं । धर्म की अभिलाषा से श्राद्ध में जो मोहित हुआ मनुष्य मधु को देता हैं, वह लंपट खादकों के साथ में घोर नरक में जाता हैं । २३४ जब रोग-ब्राह्मण ने इस प्रकार से कहा, तब दोनों वैद्यों ने उसके स्व-जनों से इसका ज्ञापन किया । शास्त्र की कथाओं के द्वारा स्व-जन आदि वर्ग उसे चिकित्सा में प्रवर्त्तन कराने लगा । जैसे कि धर्म से संयुक्त शरीर का प्रयत्न से रक्षण करना चाहिए, जैसे पर्वत से पानी प्रकट होता हैं वैसे ही शरीर से धर्म प्रकट होता हैं । इस प्रकार से पिता आदि से प्रज्ञापन किया जाता हुआ भी दृढ़ धर्मपने से उसे देह आदि प्रत्याशा के परिहार से निर्वाण सुख की अभिलाषा ही थी । उसने देह और धन की पीड़ा के उदाहरण को इस प्रकार से कहा था आपदा के लिए धन का रक्षण करें। धन से भी पत्नी का रक्षण करें। धन से भी और पत्नी से भी सतत आत्मा का रक्षण करें । तथा धर्मवंतों को देह धन तुल्य हैं और आत्मा पुनः देह के समान हैं । इस प्रकार से होने से देह-पीड़ा की उपेक्षा से आत्मा का रक्षण करना चाहिए । इस प्रकार से उसकी निज प्रतिज्ञा में निश्चलत्व को जानकर दोनों देवों को महान् हर्ष हुआ । अहो ! यह सात्त्विकों में
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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