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उपदेश-प्रासाद - भाग १
२३३ की विधि में प्रयत्न हैं न कि धर्म में, यही मेरी महामोह की विडंबना हैं। शरीर अनित्य हैं, वैभव शाश्वत नहीं हैं, मृत्यु नित्य निकट में रहा हुआ हैं, उससे धर्म-संग्रह करना चाहिए ।
उस वाणि से प्रतिबोधित होकर उस ब्राह्मण ने बारह व्रतों को ग्रहण कीये । अणुव्रत आदि के शुद्ध पालन में तत्पर होने से, सुश्रावकपने से और संपादन होती हुई चिकित्सा सामग्री के द्वारा भी, रोग आदि सहन का ही आश्रय कर वह इस प्रकार से कहता था कि
यह दुःख का विपाक तुझे पुनः भी सहन करना पडे, संचित कीये हुए कर्मों का नाश नहीं होता हैं । इस प्रकार से धारण कर जोजो दुःख आ रहा हैं उसे तुम सहन करो, पुनः भी तुझे अन्य स्थान में सद्-असद् का विवेक कहाँ से होगा ?
इन्द्र ने निश्चल मनवाले उस ब्राह्मण की इस प्रकार से प्रशंसा की कि- अहो ! रोग-ब्राह्मण महासत्त्वशाली हैं, जो इस प्रकार से गुरु-वर्ग के द्वारा अनेक चिकित्सा के उपायों में स्थापित किया जाता हुआ भी उनकी अनपेक्षा से रोग की व्यथा को सहन कर रहा है । उसकी अश्रद्धा करते हुए दो देव वैद्य के रूप में आये और उससे कहने लगें कि- हे रोग से पीड़ित ब्राह्मण ! हम दोनों तुझे रोग से विमुक्त करेंगें। परंतु तुम रात्रि में मद्य, मांस और मक्खन का परिभोग करो। वैद्य के द्वारा कहे हुए इस वचन को सुनकर उसने सोचा कि- ब्राह्मण कुल में उत्पन्न और अब विशेष से जिन-धर्म को स्वीकार करनेवाले मुझे लोक और लोकोत्तर में निन्दनीय होने से इस गर्हित कार्य को छोड़ना ही श्रेष्ठ हैं। क्योंकि
नीति में निपुण पुरुष यदि निन्दा करें अथवा स्तुति करे, यथेच्छा से लक्ष्मी प्रवेश करे अथवा जाय, आज ही मरण हो अथवा युगान्तर में हो, लेकिन धीर पुरुष न्याय मार्ग से पद-मात्र भी