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उपदेश-प्रासाद - भाग १
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इक्यावनवा व्याख्यान अब गुरु-निग्रह नामक आगार कहा जाता हैं
मिथ्यात्व से युक्त चित्तवालें माता-पिता और कलाचार्य जिस अकृत्य को करातें हैं, वह गुरु-निग्रह कहा जाता हैं।
गुरु-निग्रह :- नियम-भंग आदि से उसके आदेश दीये गये को करना, जैसे कि
माता, पिता और कलाचार्य तथा इनकी ज्ञातियाँ और धर्म के उपदेश देनेवाले वृद्ध जन, ये सज्जनों को मान्य गुरु-वर्ग हैं।
इनके मध्य में जो कुदृष्टिवालों के भक्त हैं, उनके वाक्य से निषिद्ध का भी सेवन किया जाता हैं, उससे व्रत-भंग नहीं होता । कोई अपवाद पक्ष को छोड़कर उत्सर्ग पक्ष का ही स्वीकार करते हैं । इस विषय में यह सुलस का उदाहरण हैं
राजगृह नगर में कालसौकरिक नामक अतीव निर्दय, अभव्य तथा पाँच सो भैंसों का वध कर्ता निवास कर रहा था । एक दिन श्रेणिक ने स्व नरक-गमन के निवारण के लिए जिस कालसौकरिक को कूएँ में डाला था, उसने वहाँ भी पाँच सो मिट्टीमय भैंसों को मार दीये । इस प्रकार नियंत्रित कर कुएँ में डाले गये उसने मन से ही अनेक सैंकड़ों की संख्याओं में भैंसों को मारा । इस प्रकार जीव-हिंसा कर, पाप कर्मों का अर्जन कर और सातवेंनरक के आयुको बाँधकर प्रान्त में वह रोग से आक्रान्त हुआ। तब उसके पुत्र सुलस ने पिता के सुख के लिए सुंदर भोजन, पानी, गीत, गान, कोमल फूलों की शय्या और चंदन के विलेपन आदि बहुत उपचार कीये । फिर भी उसे लेश-मात्र से भी सुख नहीं हुआ।
सुलस ने आकर के अभयकुमार से सब कहा । तब मंत्री ने