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उपदेश-प्रासाद
भाग १
२३०
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कोई भी क्षमावान् नहीं हैं । उस इन्द्र के वाक्य के ऊपर श्रद्धा नहीं करता हुआ नास्तिक देव अच्चंकारी के गृह में आया । उसने देवशक्ति से दासी के हाथ से एक कुंभ को गिरा दिया । अच्चकारी ने द्वितीय कुंभ मँगाया । देव ने उसे भी गिरा दिया । इस प्रकार से ही तृतीय कुंभ के भी भग्न हो जाने पर अच्चंकारी स्वयं ही चौथे कुंभ को ले आयी । वह घडा शील के माहात्म्य से भग्न नहीं हुआ । उसने तैल दिया ।
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मुनि ने कहा कि - हे भद्रे ! हमारें लिए घड़ों के भंग से तुम्हें बड़ा व्यय हुआ हैं । तुम दासी के ऊपर क्रोध मत करना ।
अच्चकारी भट्टा थोड़ा हँसकर कहने लगी कि - हे भगवन् ! मैंने क्रोध-मान का फल पूर्व में अनुभव किया हैं । वह क्या हैं ? इस प्रकार से उन मुनि के द्वारा पूछने पर उसने मुनि से स्व-स्वरूप का निवेदन किया । उसे सुनकर और प्रत्यक्ष होकर उस देव ने अच्चंकारी से इन्द्र का वृत्तांत कहा । पूर्व में भग्न हुए तैलों के घड़ों को सज्जित कर और अच्चकारी की प्रशंसा कर तथा स्वर्ण की वृष्टि कर देव स्वस्थान पर चला गया । दोनों साधुओं ने भी उसकी प्रशंसा की और उस तैल से साधु को स्वस्थ किया । अच्चंकारी भी गर्व से रहित हुई श्रावक-धर्म का परिपालन कर और अन्त में समाधि से मरकर तथा देव सुखों को भोग कर मोक्ष में जायगी ।
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सम्यक्त्व - बुद्धिशाली अच्चकारी के इस संबंध को सुनकर दुःख में भी धर्म को न छोड़ें। वह शीघ्र से लक्ष्मी को प्राप्त करेगा । इस प्रकार संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थकी वृत्ति में चतुर्थ स्तंभ में पचासवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ ।