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उपदेश-प्रासाद - भाग १
२२६ तापस ने वहाँ जाकर के कुंभकार से पूछा । कुंभकार ने कहा कि- इस स्त्री को और मुझे शील के माहात्म्य से ज्ञान उत्पन्न हुआ है, उससे जाना है, इसलिए तुम भी शील में प्रयत्न करो । इस वार्ता को सुनकर शीलवती के शाप के भय से विरक्त हुए भील ने अच्चंकारी को किसी पुरुष के समीप में विक्रय किया । उस पुरुष ने बब्बरकुल में कारीगर के गृह में उसको बेची । उसने भी अच्चंकारी से भोग के लिए प्रार्थना की । अच्चंकारी ने उसका कहा नहीं किया। उसने पुनः कहा कि- यदि तुम अन्न-वस्त्र आदि सुख की इच्छा करती हो तो मेरा कहा हुआ प्रमाणित करो । तृतीय आगार को जानती हुई भी उसने निश्चय को नहीं छोड़ा । तब क्रोधित होकर उस कारीगर ने स्त्री के शरीर से रुधिर को निकालकर एक पात्र में स्थापित किया । उस में उत्पन्न हुए कृमियों के रुधिरों से वह वस्त्रों को रंगने लगा । रक्त के स्राव से अच्चंकारी पांडुरोगवाली हुई परंतु, शील भग्न नहीं किया ।
इस ओर उस नगर में व्यापार के लिए आये और वहाँ पर भ्रमण करते हुए उसके ज्येष्ठ भाई ने उस बहन को देखा । उस धनपाल ने कारीगर को धन देकर अपनी बहन को छुड़ाया और उसे ग्रहण कर वह स्व-नगर में गया । पति ने उसे वापिस लाकर के सर्वस्व स्वामिनी की । तब उसने प्रतिज्ञा की कि- मैं मरणांत में भी क्रोध नहीं करूँगी।
उस नगर के वन में कायोत्सर्ग में स्थित मुनिपति का देह किसी अग्नि से जला । उनकी चिकित्सा के लिए कुंचिकश्रेष्ठी ने अन्य दो मुनियों को अच्चंकारी के गृह में लक्षपाक तैल के लिए भेजा । उन्होंने तैल माँगा । अच्चंकारी ने दासी को-तुम तैल का घड़ा ले आओ, इस प्रकार से आदेश दिया । इस बीच इन्द्र ने उसकी इस प्रकार से प्रशंसा की कि- अब जगत् में अच्चंकारी भट्टा के समान