SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८ उपदेश-प्रासाद - भाग १ के लिए कुछ बहाना कर और दो प्रहर संस्थापित कर उसे विसर्जित किया। मंत्री गृह में गया । अच्चंकारी के द्वारा द्वार को बंद किया हुआ देखकर उसने कहा कि- हे प्रिये ! द्वार खोलो ! मैं राजा की आज्ञा से रुका था, स्वेच्छा से नहीं । परवश मुझ पर कोप मत करो । इस प्रकार बार-बार कहे जाते हुए उस वचन को सुनकर और क्रोध से द्वार को खोलकर तथा दोनों दृष्टियों को ठगकर के वह गृह से बाहर निकली। वह पिता के गृह में जाती हुई चोर के द्वारा पकड़ी गयी । वस्त्र, आभरणों को ग्रहण कर उसे पल्ली के स्वामी को दिया । पल्ली के स्वामी ने भोग के लिए उसकी अत्यंत कदर्थना की । उसने कहा किमैं प्राण के त्याग में भी शील का खंडन नहीं करूँगी, ऊषर-भूमि में वर्षा के समान तुम व्यर्थ ही प्रयत्न कर रहे हो । फिर भी वह प्रतिबोधित नहीं हुआ। तब उसके प्रतिबोध के लिए अच्चंकारी ने वृत्तांत कहा___एक तेजो-लेश्या से युक्त तापस वृक्ष के नीचे स्थित था । बगुले ने उसके मस्तक के ऊपर मल का प्रक्षेप किया । उस तापस ने क्रोध से तेजो-लेश्या के द्वारा उस बगुले को जला दिया । तब उस तापस ने सोचा कि-जो कोई भी मेरी अवज्ञा करेगा, मैं उसे इस विद्या सेजला दूँगा । वह तापस भिक्षा के लिए किसी श्रावक के घर में गया । उस श्रावक की शीलवती स्त्री थी । वह अपने पति-कार्य में व्यग्र हुई भिक्षा को लेकर विलंब से आयी । क्रोधित हुए उस तापस ने उसके ऊपर तेजोलेश्या छोडी । परन्तु शील के माहात्म्य से वह जली नहीं । उस स्त्री ने इस प्रकार से कहा कि- हे त्रिदंडी ! मैं वह बगुला नहीं हूँ? तापस ने कहा कि - अरण्य में बनी हुई वार्ता को तुम कैसे जानती हो? उस स्त्री ने कहा कि- वाणारसी का कुंभकार तुझसे इस व्यतिकर को कहेगा।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy