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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ २२७ पचासवाँ व्याख्यान अब वृत्तिकान्तार नामक आकार कहा जाता हैं Į दुर्भिक्षा और अरण्य के संपर्क में जीवन के लिए मिथ्यात्व का आश्रय लिया जाता हैं, वह कान्तार वृत्ति नामक आकार ( आगार ) हैं । दुर्भिक्ष में- अन्न आदि के अभाव में । अरण्य - जल, फल आदि से रहित ऐसा प्रदेश, उसके संपर्क में-संयोग में । किसी उत्सर्ग और अपवाद को जाननेवाले संविग्न के द्वारा भी जीवन की रक्षा के लिए, मिथ्यात्व-नियम भंग आदि किया जाता हैं, वह तृतीय आकार कहा जाता हैं । कष्ट में भी कोई उत्सर्ग पक्ष में रहे हुए, अच्चंकारी के समान स्व-धर्म को नहीं छोड़ते हैं । वह यह प्रबन्ध हैं क्षितिप्रतिष्ठपुर में धन श्रेष्ठी था । उसकी भद्रा नामक पत्नी थी । उन दोनों को आठ पुत्र और उनके ऊपर भट्टिका नामकी एक पुत्री थी । एक बार श्रेष्ठी ने स्व-जन के समक्ष कहा कि- मेरी इस पुत्री को कोई भी चुंकारे नहीं, उससे वह अच्चंकारी भट्टा नाम से प्रसिद्ध हुई । 1 एक दिन राजा के मंत्री ने उसके सुंदर यौवन को देखकर उसके पिता के पास में उसे माँगी। श्रेष्ठी ने कहा कि जो इसके वाक्य का उल्लंघन नहीं करेगा, मैं उसे दूँगा, अन्य को नहीं । मंत्री ने भी स्वीकार किया । शुभ लग्न में विवाह हुआ । अच्चंकारी के साथ में वैषयिक सौख्य से कितने ही दिन व्यतीत हुए । उसने पति के आगे कहा कि - हे प्राणेश ! सूर्य के अस्त हो जाने पर आप अधिकारी के द्वारा कहीं पर भी नहीं जाना चाहिए जो मेरी प्रीति से प्रयोजन हो । मंत्री ने उसके वाक्य को स्वीकार किया । - एक दिन राजा ने पूछा कि - हे मंत्री ! तुम प्रति-दिन सकाल गृह में क्यों जा रहे हो ? उसने यथा स्थित कहा । राजा ने विनोद
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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