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उपदेश-प्रासाद - भाग १ पर माता विष दे रही है, पिता गले को मरोडता हैं, राजा प्रेरणा देता हैं और महाजन मूल्य कर ग्रहण करता हैं, तो किसका शरण किया जाय ? जैसे कि
माता-पिता ने पुत्र को दिया हैं, राजा शत्रु के समान घातक (अथवा उपेक्षा करनेवाला) हैं और देवताएँ बलि की इच्छा कर रहे हैं, लोक क्या करेगा?
अत एव हे राजन् ! मेरा यम-अतिथि होना ही योग्य हैं । उस वचन को सुनकर राजा ने कहा कि- हे बालक ! जो कोई भी तुझे मारता हैं, वह मेरा शत्रु ही हैं । तुम सुख से रहो । मुझे नगर आदि से प्रयोजन नहीं हैं, इस प्रकार से कहकर स्व-सेवक के पास में सर्वत्र नगर में अमारि की उद्घोषणा करायी । इस प्रकार से उसके धैर्य से संतुष्ट हुआ देव राजा को प्रणाम कर,नगर के गोपुर का निर्माण कर और प्रशंसा कर स्व-स्थान पर चला गया ।
सर्व लोगों के अभियोग से भी राजा ने हिंसात्मक वाक्य का आदर नहीं किया और वैराग्य से चारित्र को प्राप्त कर राजा ने सादि और अंत-हीन शिव सौख्य को प्राप्त किया।
इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में चतुर्थ स्तंभ में उन्पचासवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।