________________
२२५
उपदेश-प्रासाद - भाग १
यह विचारकर वृद्ध हंस मौन से स्थित हुआ । कालान्तर में वह लता वृक्ष के चारों ओर प्रसरित होने लगी। एक बार वृक्ष के अग्र तक बढ गयी । शिकारी उस पर चढकर वृक्ष के ऊपर चढा । वहाँ उस शिकारी ने पाश-समूह को स्थापित कीये । रात्रि के समय में हंसकोश शयन के लिए वृक्ष पर आये । वे सभी पाशों से बाँधे हुए बुंबारव को करने लगें। तब वृद्ध ने कहा कि- पूर्व में मेरा कहा हुआ नहीं किया था, उससे यह मरण आया हैं। उन हंसो ने कहा कि- हे तात ! शरण के लिए लता-अंकुर का रक्षण किया था, वह विपरीतपने से परिणत हुआ हैं । इसलिए अब जीवन उपाय का चिन्तन करो, जो कि
शरीर, चित्त के आधीन और धातुओं से बद्ध है । चित्त के नष्ट हो जाने पर धातु नष्ट हो जाते है । उस कारण चाहिए और स्वस्थ चित्त में बुद्धियों की संभावना होती है।
तब वृद्ध ने कहा कि- हे पुत्रों ! तुम मृत के समान निरुच्छ्वास सहित रहो, अन्यथा शिकारी गले को मरोड देगा । उन हंसों ने वैसे ही किया । इसप्रकार से छलित कीये गये उस शिकारी ने पक्षियों के समूह को मृत के समान जानकर विश्वस्त होकर उसने सभी हंसों को नींचले भाग में छोड़ दीएँ । तद्-अनन्तर सभी ने भी वृद्ध के वाक्य से पलायन किया और चिरंजीवी हुए । पश्चात् वृद्ध ने कहा कि- .
___ हम वहाँ निरुपद्रव वृक्ष के ऊपर दीर्घकाल पर्यंत रहे हुए थे, मूल से वल्ली(लता) उत्पन्न हुई, उससे शरण से ही भय हुआ हैं ।
यह कहकर इन्द्रदत्त ने पुनः भी कहा कि- हे राजन् ! पिता के द्वारा संतापित किया गया शिशु माता के शरण में जाता हैं, माता के द्वारा कष्ट दिया गया पिता के शरण में जाता हैं । उन दोनों के द्वारा उद्वेजित किया गया शिशु राजा के शरण में जाता हैं । राजा के द्वारा भी सन्तापित किया गया बालक महाजन के शरण में जाता हैं । जहाँ