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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ २२४ से तोड़ दो, जिससे कि सभी का मरण न हो । उसे सुनकर के तरुणहंस हँसने लगे कि - अहो ! यह मरण से डर रहा हैं और सर्व काल जीने की इच्छा कर रहा है, यहाँ पर किससे भय हैं ? वृद्ध ने सोचा किअहो! यें मूर्ख हैं और स्व हित तथा अहित को नहीं जानतें हैं। क्योंकिप्रायः कर अब सन्मार्ग का दिखाना क्रोध के लिए होता है, जैसे कि - विशुद्ध आईने के दर्शन से कटे हुए नाकवाले जन को क्रोध होता हैं । अन्य यह भी हैं जैसे-तैसे भी मनुष्य को उपदेश नहीं देना चाहिए, जैसे कि तुम देखो, यहाँ पर मूर्ख वानर ने भली-भाँति रहनेवाली सुगृही नामक चिड़ियाँ को निर्गृही की थी । जैसे कि I एक वृक्ष के ऊपर सुगृही नामकी एक चिड़ियाँ अच्छी तरह से गूंथे हुए एक सुंदर माले में सुख से रह रही थी । इस ओर मेघ के बरसने पर इधर-उधर भ्रमण करते हुए, शीतल पवन से शरीर से काँपता हुआ और स्व- दाँतों को बजाता हुआ कोई वानर वहाँ पर आया । उस प्रकार से उस वानर को देखकर चिड़ियाँ ने कहा कि - हे वानर ! तुम वर्षा-काल में इधर-उधर क्यों भ्रमण कर रहे हो ? तुम घर को क्यों नहीं करते हो ? यह सुनकर उस वानर ने इस प्रकार से कहा कि सूची के समान मुखवाली ! हे दुराचारिणी ! रे रे पंडित माननेवाली ! गृह - आरंभ में असमर्थ हूँ और गृह के भंजन में समर्थ हूँ । इस प्रकार से कहकर और उछलकर उस वानर ने एक-एक तृण कर उस माले को विदिशाओं में डाला । वह चिड़ियाँ अन्यत्र जाकर सुख से रही ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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