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________________ २२३ उपदेश-प्रासाद - भाग १ प्रिये ! छोटे पुत्र को देकर यह धन ग्रहण किया जाय । धन का माहात्म्य लोकोत्तर हैं । जैसे कि __ जो अपूजनीय भी पूजा जाता हैं, जो अगमनीय भी गमन किया जाता हैं । जो अवन्दनीय भी वंदन किया जाता हैं, वह प्रभाव धन का ही हैं। भार्या ने भी निर्दयता से उसे स्वीकार किया । पटह को पकड़कर ब्राह्मण ने कहा कि- यह धन मुझे देकर के मेरा यह पुत्र ग्रहण किया जाय, प्रजा ने कहा कि- यदि तुम इसका गला-मोटन करो और यदि तेरी भार्या इसे विष दे, तो तुम दोनों को हम धन देंगें, अन्यथा नहीं । उस ब्राह्मण ने सब माना । माता-पिता के उस वाक्य को सुनकर उस पुत्र इन्द्रदत्त ने सोचा कि- अहो ! संसार स्वार्थी ही हैं, अपने पुत्र को भी पंचत्व में आरोपन करता हैं । तब उसे महाजन को अर्पित किया । पश्चात् पुष्प आदि से पूजा कर महाजन उसे राजा के समीप में ले गया । राजा ने भी नगर-द्वार के संमुख आते हुए और हँसते हुए उसे देखकर कहा कि- रे बालक ! तुम किसलिए हँस रहे हो? क्या तुम मरण से नहीं डरते हो ? बालक ने कहा कि- हे स्वामी! जब-तक भय नहीं आता हैं, तब-तक ही भय से डरना चाहिए । आये हुए भय को देखकर जन निःशंक होकर उसे सहन करें। बालक ने पुनः कहा कि- हे राजन् ! जिनका शरण किया जाता है, उनसे भय हुआ है, यथा- हंसों को लता के अंकुर से । यह उदाहरण हैं एक वन में मानस-सरोवर हैं। उसके तट के ऊपर सरल और ऊँचा वृक्ष हैं । उस वृक्ष के ऊपर बहुत हँस बैठते हैं। एक बार वृद्ध हंस ने उस वृक्ष के मूल में लता के अंकुर को देखकर कहा कि- हे पुत्र-पौत्रों ! इस लता-अंकुर को चंचूके प्रहारों
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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