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________________ २१७ उपदेश-प्रासाद - भाग १ स्वरूप के पूछने पर सद्दालपुत्र ने जैसा हुआ था, वह सब कहा ।वह सर्व सुनकर पत्नी ने कहा कि- हे स्वामी ! किसी ने भी तुम्हारे पुत्र और पत्नी आदि को नहीं मारा हैं, परंतु तुम्हारे द्वारा व्रत-भंग किया गया है, वह योग्य नहीं हैं । उसके बाद उस पाप की आलोचना और प्रतिक्रमण कर तथा क्रम से ग्यारह श्रावक की प्रतिमाओं को संपूर्ण कर सौधर्मकल्प में चार पल्योपम की आयुवाला देव हुआ । वहाँ से च्यवकर महाविदेह में सिद्ध होगा । इस प्रकार से उपासक-दशांग से यह प्रबंध लिखा गया हैं। ___जिनेन्द्र के वाक्य से विबोधित हुए चित्तवालें, गोशालक पक्ष की बुद्धि को दूर करनेवाले, सम्यक्त्व की यतना धारण में प्रवीण (अथवा सम्यक्त्व की शुद्धि से यतना ) सद्दालपुत्र ने स्वर्ग को प्राप्त किया। इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में चतुर्थ स्तंभ में सैंतालीसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ। अडतालीसवाँ व्याख्यान अब छह आगारों का अधिकार कहा जाता हैं - जिन आदि ने अपवाद में छह प्रकार के आगार कहें हैं। वृत्तिकान्तार, गणयुग, राज, गुरु, बल और देव युक्त-यें छह आकार(आगार) हैं। (कहीं पर-राज-गुरु-वृत्ति कांतार-बल और देव से युक्त, इस तरह से हैं)। यहाँ पर यह भावना है कि- इस सम्यक्त्व में अपवाद में ही आगार हैं किन्तु उत्सर्ग में नहीं हैं । क्योंकि
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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