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उपदेश-प्रासाद भाग १
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श्रमणोपासक ! यहाँ पर महा गोप, महा - सार्थवाह, महाधर्मकथक और महा-निर्यामक आये थें ।
यह सुनकर सद्दालपुत्र ने कहा कि - तुमने यह किसका कीर्त्तन किया हैं ? गोशालक ने कहा कि- मैंने यह सर्व भी महावीर का वर्णन किया हैं। गोशालक के वाक्य से संतुष्ट हुए सद्दालपुत्र ने बहुमान से उसे कहा कि- क्या तुम मेरे गुरु के साथ में वाद करोगें ? उसने कहा कि - हे भद्र! मैं वाद में समर्थ नहीं हूँ। तुम्हारे धर्मआचार्य एक वाक्य से मेरा निराकरण करेंगे। तब सद्दालपुत्र ने कहा कि- तुमने सर्वज्ञ का यथार्थ वर्णन प्रकट किया हैं, उससे मैं सत्कारपूर्वक तुम्हें अशन-वस्त्र आदि दे रहा हूँ, किंतु धर्म से नहीं । इत्यादि वचन की युक्ति से उसे निर्ग्रन्थ प्रवचन में अत्यंत दृढ़ जानकर विलक्ष होते हुए गोशालक अन्यत्र चला गया ।
एक दिन पंद्रह वर्ष के मध्य में जब धर्म में एक निष्ठ सद्दालपुत्र पौषध से रहा था, तब हाथ में तीक्ष्ण तलवार धारण कर एक देव पिशाच रूप से आकर के उपसर्गों को करने लगा । उसके घर से एक पुत्र को लाकर और उसका छेदन - भेदन कर उसके रुधिर से पौषध में स्थित सद्दालपुत्र के शरीर का सिंचन करने लगा । तो भी वह कोप रहित था । भय रहित उसे देखकर देव ने कहा कि - हे अप्रार्थनीय की प्रार्थना करनेवालें ! यदि तुम धर्म को नहीं छोड़ते हो, तो मैं तेरे आगे तेरी पत्नी का भी घात करूँगा ।
इस प्रकार से बार-बार उस देव के वाक्य को सुनकर उसने सोचा कि- मैं इस अनार्य को ग्रहण करता हूँ, इस प्रकार से सोचकर बड़े शब्द से तिरस्कार पूर्वक जब वह उसे पकड़ने के लिए उत्सुक हुआ, तब वह देव अदृश्यत्व को प्राप्त हुआ । उस कोलाहल को सुनकर और स्वामी के समीप में आकर पत्नी के उस समय के