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उपदेश-प्रासाद - भाग १
२१५ और चक्र पर रखकर आदि के द्वारा बनाये जातें हैं । तब भगवान् ने उसे पूछा कि- हे भद्र ! क्या तुम घड़ों को प्रयत्न से अथवा इतर प्रकार से करते हो ? गोशालक मत से और नियतिवादीपने से 'प्रयत्न से होता हैं इस प्रकार से उत्तर देने में स्व-मत की क्षति और पर-मत की अनुमति दोष को जानते हुए उसने 'बिना प्रयत्न के' इस प्रकार से उत्तर दिया।
प्रभु ने पुनः उससे प्रश्न करते हुए कहा कि- हे सद्दालपुत्र ! यदि कोई जन तेरे घड़ों का अपहरण करें अथवा तोड़ दें अथवा तेरी पत्नी के साथ में भोगों को भोगे, उसे तुम कौन-सा दंड दोगे? उसने कहा कि- हे भगवन् ! मैं अकाल में ही उसे जीवन से नष्ट कर दूंगा
और उसकी तर्जना करूँगा । स्वामी ने कहा कि- इस प्रकार उद्यम के पारतंत्र्य से सर्व कार्यों को करते हुए तुम 'बिना प्रयत्न के' इस प्रकार से जो कह रहे हो, वह मिथ्या हैं । एकान्त मत से स्वीकार किया हुआ वह असत्य हैं । भगवान् के द्वारा कही हुई युक्ति से प्रतिबोधित हुए उसने जिन के समीप में श्रावक-धर्म का अंगीकार किया । उसकी पत्नी ने भी पाँच अणुव्रत और सात शिक्षा-व्रत स्वरूपवालें धर्म का स्वीकार किया । वहाँ से जिन अन्य देश में विहार करने लगे।
एक दिन सद्दालपुत्र के धर्म प्राप्ति के स्वरूप को सुनकर गोशालक उसके गृह में आया । उसे आते हुए देखकर सद्दालपुत्र भी मौन से रहते हुए अभ्युत्थान आदि नहीं किया । तब लज्जा से मंखलि-पुत्र ने इस प्रकार से भगवान् का गुण-वर्णन किया कि- हे देवानुप्रिय ! पूर्व में यहाँ पर महा-माहन आये थें । उसे सुनकर सद्दालपुत्र ने कहा- आपके द्वारा महामाहन कौन कहें गये हैं ? गोशालक ने कहा कि- हे सद्दालपुत्र ! सूक्ष्म आदि भेदों से भिन्न जीवों को मारने से निवृत्त होने से श्रीवीर ही महा-माहन हैं । हे