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उपदेश-प्रासाद - भाग १ यह तात्पर्य हैं।
इस विषय में सद्दालपुत्र का उदाहरण उपासकसूत्र से लिखा जाता हैं
पोल्लास नामक नगर में पाँच सो कुंभकार दूकानों का स्वामी, तीन करोड़ स्वर्ण का अधिपति, दस हजार गायों का पोषक और मंखलि-पुत्र के धर्म को जान्नेवाला सद्दालपुत्र था । उसकी अग्निमित्रा पत्नी थी।
___ एक बार एक देव श्रेष्ठी के समीप में आकर और अंतरीक्ष में स्थित होकर उससे कहा कि- हे श्रेष्ठी! कल इस नगर में महा-माहन अरिहंत और सर्वज्ञ आयेंगे । तुम भक्ति से ये कल्याण, मंगल, दैवत और चैत्य स्वरूप है इस प्रकार की बुद्धि से उनकी उपासना करना । इस प्रकार से कहकर देव के चले जाने पर सद्दालपुत्र ने सोचा किमेरे धर्म-उपदेशक गोशालक हैं, वेंही महामाहन और सर्वज्ञ कल आनेवालें हैं । मैं भी उनकी भोजन आदि से उपासना करूँगा । प्रातःकाल में श्रीवीर आगमन को सुनकर आनंदित हुआ महोत्सव पूर्वक उनको वंदन करने के लिए गया । दूर से ही प्रातिहारी आदि शोभा को देखकर अहो ! सद्-गुरुओं की यह शक्ति अचिन्तनीय हैं, इस प्रकार से विचार करते हुए जिन को प्रणाम कर आगे बैठा । पश्चात् देशना का श्रवण करने लगा।
वीर ने पूछा कि- हे सद्दालपुत्र ! कल देव ने जो तुझे कहा था, वह स्मृतिपथ में हैं ? हाँ हैं, इस प्रकार से कहकर उसने कहा किहे स्वामी ! आप मेरी कुंभकार-शाला में आओ, जिससे कि मैं
आपकी उपासना करूँ । भगवान् ने भी वैसा किया । एक दिन धूप में रखें हुए घड़ों को देखकर जिन ने उसे कहा कि- हे श्रेष्ठी ! ये घड़े किस उपाय से बनाये गये हैं ? उसने कहा कि- हे स्वामी ! पिंड का करना