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उपदेश-प्रासाद
भाग १
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कर स्व-ग्राम में आया । कुमार को राज्य के ऊपर स्थापित कर पिता ने व्रत ग्रहण किया । संग्रामशूर राजा भी श्रावक धर्म का परिपालन कर पाँचवें कल्प में एकावतारपने से देव हुआ ।
आद्य दो यतनाओं में चित्त को स्थापित करनेवालें और राजाओं में प्रधान संग्रामशूर ने कष्ट में भी अहिंसा के नियमों का परिपालन कर श्रीब्रह्मकल्प को अलंकृत किया ।
इस प्रकार उपदेश - प्रासाद में चतुर्थ स्तंभ में छियालिसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ ।
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सैंतालीसवाँ व्याख्यान
अब अन्य चार यतनाओं का वर्णन किया जाता हैंमिथ्यात्व से लिप्त चित्तवालों से एक बार या बहुत बार संलाप-आलाप का वर्जन तथा एक बार या बहुत बार अशन आदि न दें ।
मिथ्या दृष्टिवालों से- चरक आदियों से स-स्नेह तुमको कुशल हैं, इस प्रकार से पुनः पुनः पूछना संलाप हैं। उनसे एक बार पूछना आलाप हैं । उनको एक बार अथवा अनेक बार दान ( भोजन आदि) न दें। इस प्रकार से यें तीसरी, चौथी, पाँचवीं और छुट्टी यतना हैं । कृपावंतों के द्वारा कहा गया हैं कि
आज के बाद मुझे अन्य तीर्थिक के देवताओं को अथवा अन्य तीर्थों के द्वारा ग्रहण कीये हुए अरिहंतों के चैत्यों को वंदन करना अथवा नमस्कार करना अथवा पूर्व में आलाप कीये बिना आलाप या संलाप करना अथवा उनको अशन ( भोजन ) या पान या खादिम या स्वादिम को देना अथवा अनुप्रदान करैना नहीं कल्पता हैं, इसका