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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ २१२ में समर्थ नहीं हो, तो मेरे गुरु चरक परिव्राजक को प्रणाम करो । अथवा मेरे महल में विष्णु की मूर्ति और जिन-बिंब भी हैं, तुम उनको प्रणाम कर पूजा करो । अथवा तुम मेरी प्रतिमा कराकर नित्य पूजा करो । अन्यथा मैं इसे संपूर्णतया निगलूँगा । कुमार ने कहा कि - हे राक्षस ! जीवन के अंत में भी जिनवर और सुसाधु को छोड़कर मैं अन्य को नमस्कार नहीं करता । निष्कारण मैं स्थावर की भी हिंसा नहीं करता, तो अन्य की क्या बात? हे देव ! तुझे भी ऐसा कहना योग्य नहीं हैं । राक्षस ने कहा किहे राज-पुत्र ! यहाँ जिन-मंदिर में तुम वीतराग बिंब की पूजा करो । वहाँ हर्ष सहित जाकर और बौद्ध के द्वारा पूजित उस बिंब को देखकर तथा वापिस लौटकर कुमार ने कहा कि- हे देव ! शिर-छेद होने पर भी मैं तेरा कहा नहीं करूँगा । यह सुनकर उस राक्षस ने तरुणी को पैर से निगलना प्रारंभ किया । — तब वह बाला अति करुण स्वर से विलाप करने लगी किहा नाथ ! हे प्राण-प्रिय ! मरण से तुम मेरा रक्षण करो । इस प्रकार से विलाप करती हुई उसे कंठ रूपी लता तक निगलकर राज-पुत्र से कहने लगा कि - रे मूर्ख-शेखर ! यदि तुम दासी नहीं दे सकते हो तो एक बकरा दो, नहीं तो इस बाला का भक्षण कर मैं तेरा भक्षण करुँगा । तब कुमार ने राक्षस से कहा कि - कल्पान्त काल में भी मैं तेरा कहा नहीं करूँगा । तुम बार-बार क्यों पूछ रहे हो ? उस कुमार के निश्चलत्व से संतुष्ट हुए दिव्य रूपधारी देव ने कहा कि- हे साहसिक - शेखर ! मैं इन्द्र के द्वारा की गयी तेरी प्रशंसा की श्रद्धा नहीं करते हुए तेरी परीक्षा करने के लिए यहाँ पर आया हूँ। मैं तेरी कृपा से सम्यक्त्वधारी हुआ हूँ । कुमार के साथ में बाला का गन्धर्व-विवाह का निर्माण कर देव स्वर्ग में चला गया । महोत्सव के साथ कुमार भी उससे विवाह
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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