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उपदेश-प्रासाद - भाग १
२११ निर्मित सात भूमिवालें महल के ऊपर के भाग में गिरा । वहाँ से वह नीचली भूमि में गया । वहाँ पर कल्पवृक्ष की शाखा के ऊपर लटकते हुए पलंग में सोयी हुई और सूक्ष्म वस्त्रों से सर्व अंगो में ढंकी हुई उसे देखकर वस्त्र को दूर किया । उसने भी उठकर के उसे पलंग के ऊपर बिठाया । तरुणी के पूछने पर उसने स्व-कुल आदि को कहा और अपने चरित्र को कहकर वह इस प्रकार से उसके चरित्र को सुनने लगा
वैताढ्य पर्वत के ऊपर दक्षिण-श्रेणि में विद्युत्प्रभ राजा की मैं मणिमंजरी नामक पुत्री हूँ। एक दिन मेरे पिता ने नैमित्तिक से पूछा कि- मेरी पुत्री का योग्य स्वामी कब और कौन होगा ? तब नैमित्तिक ने कहा कि- हे राजन् ! तुम समुद्र के मध्य में जलकान्त रत्न का महल कराकर कल्पवृक्ष से लटकते हुए पलंग में बैठी हुई इसका रक्षण करो । वहाँ पर शूरसेन का पुत्र संग्रामशूर इसका वर आयगा । इस प्रकार नैमित्तिक के वचन से मेरे पिता ने यह सर्व निर्माण कराया हैं । यहाँ पर बहुत दिनों के बाद तुम देखे गये हो । इस प्रकार परस्पर प्रेम से भरे हुए वार्ता के अवसर में हाथ में नग्न तलवार को धारण कीये, ताड़ और तमाल वृक्ष के पत्ते के समान काले अंगवाला तथा विकराल भाल स्थलवाला एक राक्षस सहसा ही प्रकट होकर के कुमार से कहने लगा कि- हे आर्य-पुत्र ! मैं सात दिनों से भूखा हूँ। तुम मेरे भक्ष्य से कैसे विवाह करने की वांछा कर रहे हो ? इस प्रकार से कहकर नूपुर सहित उसे पादतल से निगलना प्रारंभ किया । तब कुमार ने तलवार से उसे मारा । तलवार दो भागों में हुई । कुमार ने बाहु-युद्ध किया । राक्षस ने उसे बाँधकर और भूमि के ऊपर गिराकर के कहा कि- हे राज-नंदन ! यदि तुम मुझे एक अन्य स्त्री अथवा तेरे स्थूल काय को दोगे, तो मैं तेरी प्रिया को छोडूंगा । यदि तुम ऐसा करने