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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ २१० मारने के लिए कुत्ते के समूह को छोड़ा, परंतु चित्र में चित्रित कीये हुए के समान उन कुत्तों को देखकर संग्रामशूर ने उनके अधिकारियों को पूछा । वें भी कहने लगें कि- हे स्वामी ! हम विशेष कारण को नहीं जानतें हैं, परंतु चेष्टा से साधु-आगमन से प्रतिबोधित हुए जाने जातें हैं। इसे सुनकर वह सोचने लगा कि- अहो ! पशु-समूह से भी मुझे धिक्कार हो । उसने गुरु-समीप में धर्म को सुना, जैसे कि बारह दोषों से वर्जित जिन देव हैं। मिट्टी के ढेले और स्वर्ण में समानता वाले सुसाधु गुरु हैं । पुनः जीव-दया से सुंदर धर्म हैं, सदा वही यहाँ पर यह रत्न-त्रय हैं। यह सुनकर संग्रामशूर ने गृहस्थ धर्म का अंगीकार किया। राजा ने उसे युवराज पद पर स्थापित किया । मतिसागर नामक कुमार का मित्र जहाज से बहुत धन का उपार्जन कर पूर्व के मित्र से मिलने के लिए वहाँ पर आया । कुमार ने कुशल प्रश्न पूर्वक उससे द्वीपसमुद्र आदि की वार्ता पूछी । उसने भी कहा कि- हे मित्र ! जहाज में चढ़ा हुआ मैं भरतावधि के मध्य भाग में अत्यंत ऊँचे कल्पवृक्ष की शाखा में झूलते हुए पलंग में स्थित, सकल स्त्रियों में तिलक-समान, गीत आदि शब्द से किन्नरीयों को दासी करनेवाली दिव्य तरुणी को देखकर जब मैं जहाज को उसके समीप में ले आया, तब कल्पवृक्ष और मेरे मनोरथ के साथ ही वह समुद्र के मध्य में निमग्न होती हुई देखी गयी । इस आश्चर्य से मैं भी चमत्कृत हुआ। उससे मैंने आज तेरे आगे कहा हैं । काम प्रसर से जर्जरित हुआ अंगवाला कुमार मित्र के साथ जहाजों को भरकर क्रम से समुद्र के मध्य प्रदेश में आया । दूर से वैसे ही क्रीड़ा करती हुई उसे देखा । जब राज-पुत्र उसके समीप में गया, तब वह पूर्व के समान ही निमग्न हो गयी । हाथ में तलवार लेकर राज-पुत्र ने उसके पीछे छलांग दी । वहाँ जलकान्त मणि से
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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