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________________ उपदेश-प्रासाद — भाग १ २०६ चतुर्थ स्तंभ छियालीसवाँ व्याख्यान अब छह यतनाओं के मध्य में से प्रथम दो का वर्णन किया जाता हैं अन्य तीर्थिक के देवों को तथा अन्यों के द्वारा ग्रहण कीये हुए अरिहंतों को कदापि पूजन और वंदन नहीं करना चाहिए । पर - तीर्थिक देव-शंकर आदि हैं, उनकी पूजा आदि नहीं करनी चाहिए. यह प्रथम यतना हैं। तथा अन्यों के द्वारा-सांख्य आदि के द्वारा, ग्रहण कीये हुए - स्व- आश्रम में स्थापित कीये हुए, अरिहंतों को- जिन-मूर्त्तियों को भी, प्रसंग, दोष- वृद्धि के कारण से वंदन आदि नहीं करना चाहिए, यह द्वितीय यतना हैं, यह तात्पर्य हैं । इस विषय में संग्रामशूर का प्रबंध हैं पद्मिनीखंड नगर में संग्रामदृढ़ राजा हैं और उसका पुत्र संग्रामशूर हैं। वह प्रति-दिन शिकार करता था। एक दिन पिता ने असद्- आग्रह को नहीं छोड़ते उस संग्रामशूर की तर्जना कर नगर से बाहर निकाल दिया । वह नगर के बाहर स्थान बनाकर स्थित हुआ। दिन में कुत्ते के समूह को आगे कर और अरण्य में प्राणियों को मारकर प्राण-वृत्ति करता था । एक दिन कुत्ते के समूह को वहीं छोड़कर वह किसी ग्राम में गया । उस समय उस उद्यान में सूरि पधारें थें । सूरि ने उन कुत्तों को प्रतिबोधित करने के लिए मधुर वचन से कहा किजो महा- पापी पुरुष क्षण - मात्र सुख के लिए जीवों को मारतें हैं, वें भस्म के लिए हरिचंदन-वन खंड का दहन करतें हैं । - यह सुनकर प्रतिबोधित हुए उन्होंने यावज्जीव प्राणिवध नियम का ग्रहण किया । अब संग्रामशूर वहाँ से आकर जीवों को
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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