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________________ २०८ उपदेश-प्रासाद - भाग १ डराने की क्रियाओं को करने के द्वारा डराने लगें, इस प्रकार सकल नगर में भ्रमण कराकर लाया गया । राजा ने भी थोड़ा हँसकर के उसे कहा कि-हे श्रेष्ठी ! अत्यंत चंचल भी मन और इंद्रियों को तुमने कैसे रोके थें ? उसने कहा किहे स्वामी ! मरण के भीरुपने से, राजा ने कहा कि- यदि तूंने एक भव के लिए अप्रमाद का सेवन किया था, तो अनंत संसार और मरण से भयवालें साधु आदि कैसे प्रमाद करें ? हे श्रेष्ठी-राज ! तुम हितकारी वचन सुनो जिससे कि इंद्रिय समूह को महीं जीतनेवाला दुःखों से बाधित किया जाता हैं, उससे सर्व दुःखों से विमुक्ति के लिए इन्द्रियों को जीतें। इन्द्रियों का सर्वथा विजय होना अघटित नहीं हैं । राग-द्वेष से विमुक्ति की प्रवृत्ति भी उनकी जय हैं । सदा संयमी योगीयों के इंद्रिय हत-अहत होतें हैं । हित प्रयोजनों में इन्द्रिय अहत होतें हैं और अहित वस्तुओं में इंद्रिय हत होते हैं। यह सुनकर प्रतिबोधित हुए उसने जिन-मत के तत्त्व को जानकर श्रावक-धर्म का स्वीकार किया । पद्मशेखर राजा ने इस प्रकार से बहुत जनों को धर्म में संस्थापित कर स्वर्ग को प्राप्त किया। गुणों से युक्त आस्तिक नर गण जिन-मत में आस्था को करते हुए निर्मल मन से पद्मशेखर राजा के चरित्र का विचार करें। इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में तृतीय स्तंभ में पैंतालीसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ। यह तृतीय स्तंभ समाप्त हुआ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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