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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ २०७ I अथवा न हो ? पुनः कौन जानता है कि परलोक हैं अथवा नहीं हैं ? जो कुछ भी हैं, वह यह हैं । इस प्रकार से उसने भी बहुत लोगों को ठगा । इस प्रकार से पुण्य और पाप के उपदेश में कुशल वें दोनों भी उस नगर में प्रत्यक्ष सुगति-दुर्गति मार्ग के समान हुए थें । एक दिन राजा ने उसके स्वरूप को जानकर गुप्त - रीति से निज मनुष्य के पास से उसके गृह में लक्ष मूल्यवाला एक हार उसके आभरण करंडक में डालकर नगर में पटह बजवाया कि- जो अब राजा के गये हुए हार के बारे में कहेगा, उसे दंड नही होगा, किंतु बाद में जिसके गृह में प्राप्त होगा, उसे दंड दिया जायगा ; इत्यादि, जब कोई-भी नहीं मान रहा था, तब राजा के आदेश से राज-पुरुष नगर के गृहों का शोधन करने लगें । क्रम से जय के गृह में हार को प्राप्त किया । सेवक श्रेष्ठी को बांधकर राजा के समीप में ले आये । तब उस राजा ने आदेश दिया कि - इसका वध किया जाय और कोई भी उसे न छुड़ाये । स्व-जन आदि के द्वारा बहुत कहने पर राजा ने कहा कियदि मेरे गृह से तैल से भरे हुए पात्र को ग्रहण कर, बिंदु मात्र को भी नहीं गिराते हुए सकल नगर में भ्रमण कर मुझसे मिलता हैं, यदि वह इस प्रकार से करता हैं, तभी इसे छोड़ा जायगा, अन्यथा नहीं । उसने भी मरण के अत्यंत भय से उसे स्वीकार किया । - अब पद्मशेखर राजा ने सकल नगर के लोगों को आदेश दिया कि-स्थान-स्थान पर वीणा, बाँसुरी और मृदंग बजाओ, अति सुंदर रूप लावण्य वेष विशेषवाले बनकर घूमो और स्थान-स्थान पर विलासों से युक्त तथा सर्व-इन्द्रियों को सुखकारी सैंकड़ो नाटक हो। उन कार्यों में विशेष से रसिक होते हुए भी जय ने उसी पात्र में दृष्टि को स्थापित की थी । उसके दोनों ओर रहे हुए तलवार से युक्त हाथवालें ऐसे राजा के द्वारा नियुक्त कीये गये सुभट उसे विविध 1
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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