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उपदेश-प्रासाद - भाग १
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पैंतालीसवा व्याख्यान अब पंचम लक्षण कहा जाता हैं
अन्य तत्त्व के श्रवण करने पर भी प्रभुओं के द्वारा जो तत्त्व कहा गया हैं, निःशंक से उसे सत्य मानता हैं, वह आस्तिक्य नामक सुलक्षण हैं।
इस विषय में पद्मशेखर राजा का उदाहरण हैं, जैसे कि
पृथ्वीपुर में पद्मशेखर राजा विनयंधर सूरि के पास में प्रतिबोधित हुआ अतीव धर्म-परायण प्रति-दिन सभा में लोगों के समक्ष गुरु के गुणों का कीर्तन करता था, जैसे कि
अन्य जन को प्रमाद से वापिस लौटाते हैं और स्वयं ही निष्पाप मार्ग में प्रवर्तन करते हैं, तत्त्व को कहते हैं जो मोक्षअभिलाषी प्राणियों के हित की इच्छा करते हैं वे गुरु कहे जाते हैं । वंदन कीये जाते हुए उत्कर्ष को प्राप्त नहीं करतें हैं, निंदा कीये जाते हुए प्रद्वेषित नहीं होतें हैं । राग-द्वेष का नाश करनेवाले धीर मुनि चित्त से दमन करतें हैं और आचरण करतें हैं।
दो प्रकार से गुरु कहे गये हैं, जैसे कि- तप-उपयुक्त और ज्ञान-उपयुक्त । वहाँ तप-उपयुक्त गुरु वट के पत्ते के समान केवल स्व को तारते हैं । ज्ञान-उपयुक्त गुरु जहाज के समान स्व-पर को तारतें हैं । इत्यादि गुरु गुण के वर्णनों से उसने अनेक लोगों को धर्म में स्थापित किया । परंतु नास्तिक-मत अनुसारी एक जय नामक व्यापारी इस प्रकार से कहता था कि- स्व-स्व मार्ग में अनुगमन करने के स्वभाववाली इंद्रियों को रोकना दुःशक्य हैं । तप-मात्र आत्मा का शोषण ही हैं । स्वर्ग-मोक्ष को किसने देखें हैं ? जैसे कि
हाथ में आये हुए जो ये काम हैं, वे भविष्य-काल में हो